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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ३१५ रपर्याप्तकोत्कृष्टावगाहनप्रमाणमिदु ६।८।४ आधारदोळाश्रयदोळु वत्तिसुव प।४।८।४।०९ a a शरीरम नुकळवावु कलवु जीवंगळवेल्लमुं स्थूलंगळु बादरंगळे बुदत्थं । आधादिदमा जीवंगळगे बादरस्वभावप्रतिघाताभावमादोडमधःपतनरूपगतिप्रतिघातसंभवदिदं मुंपेन्द लक्षण समणसमर्थनं मेणिदक्कुं । सर्वत्र सर्व्वलोकदोळं जलस्थलाकाशदोळं मेणु निरंतरंगळुमाधारानपेक्षितशरीरमनु जीवंगळु सूक्ष्मंगळप्पुवु । जलस्थलरूपाधारदिदमा जीवंगळ शरीरगतिप्रतिघातमुमिल्लत्यंतं ५ सूक्ष्मपरिणाममप्पुरिंदमा जीवंगळु सूक्ष्मंगळप्पुवु। अंतरयति व्यवदधाति विलंबयतीत्यंतरमाधारस्ततो निष्क्रांता निरंतरा एंदितिल्लियुं पूर्वोक्तलक्षण समर्थनमरियल्पडुगुं । ओ एंदितु शिष्यसंबोधनमक्कुमत्तळानु बादरपर्याप्तक वायुकायिकादिगळ्गे जघन्यशरीरावगाहनमल्पमदं नोडलसंख्येयगुणवदिदं सूक्ष्मपर्याप्तकवायुकायिकादि पृथ्वीकायिकावसानमाद जीवंगळ्गे जघन्योत्कृष्टशरीरावगाहनंगळु पिरिदप्पुवंतादोडे सूक्ष्मनामकर्मोदयसामदिंदमयदिदमवक्के प्रतिघातमिल्लदु १० कारणमागि निष्क्रमिसि नुसुळ्दु पोप परिणतिसंभविसुगुम तोगळु श्लक्ष्णवस्त्रनिष्क्रांतजलबिंदुविनंते, बादरंगळु मत्तल्पशरीरत्वमादोडं बादरनामकर्मोदयदि मन्यदिदं प्रतिघातमक्कुं। श्लक्ष्णवस्त्रानिष्क्रां ६।८।४। ar.-..मिदं प । ४ । ८।४।।९। आधारे थलाओ आधारे आश्रये वर्तमानशरीरविशिष्टाः ये जीवास्ते सर्वेऽपि aa स्थूलाः बादरा इत्यर्थः । आधारेण तेषां बादरस्वभावप्रतिघाताभावेऽप्यधःपतनरूपप्रतिघातसंभवात् प्रागुक्तलक्षणमेव समथितं भवति । सर्वत्र-सर्वलोके जले स्थले आकाशे वा निरन्तराः-आधारानपेक्षितशरीराः जोवाः १५ सूक्ष्मा भवन्ति । जलस्थलरूपाधारण तेषां शरीरगतिप्रतिघातो नास्ति । अत्यन्तसूक्ष्मपरिणामत्वात्ते जीवाः सूक्ष्मा भवन्ति । अन्तरयति-व्यवदधाति विलम्बयतीत्यन्तरं-आधारः, ततो निष्क्रान्ता निरन्तरा इत्यत्रापि पूर्वोक्तलक्षणमेव समर्थितं ज्ञातव्यम् । ओ इति शिष्यसंबोधनम् । यद्यपि बादरापर्याप्तवायुकायिकादीनां जघन्यशरीरावगाहनमल्पम् । ततोऽसंख्येयगुणत्वेन सूक्ष्मपर्याप्तकवायुकायिकादिपृथ्वीकायिकावसानजीवानां जघन्योत्कृष्टभागहार असंख्यात सिद्ध है;यह स्पष्ट है । पीछे जीव समासाधिकारमें सूक्ष्म अपर्याप्त वायु- २० कायकी जघन्य अवगाहना और बादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिककी उत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाण कहा ही है सो जानना। वर्तमान शरीरसे विशिष्ट जो जीव आधार अर्थात् आश्रयसे रहते हैं,वे सब बादर होते हैं। आधारसे उनके बादर स्वभावका प्रतिघात नहीं होनेपर भी नीचे गिरनेरूप स्वभावका प्रतिघात होता है। अतः पहले जो घातरूप लक्षण बादर शरीरका कहा था,उसीका समर्थन होता है। गाथामें 'ओ' पद शिष्यके लिए सम्बोधन २५ है। यद्यपि बादर अपर्याप्त वायुकायिक आदिकी जघन्य शरीरावगाहना अल्प है और उससे असंख्यात गुणी होनेसे सूक्ष्म पर्याप्तक वायुकायिकसे लेकर पृथ्वीकायिक पर्यन्त जीवोंकी जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना. महान है। फिर भी सूक्ष्मनामकर्मके उदयके सामर्थ्यसे उनका अन्यसे प्रतिघात नहीं होता, और जैसे महीन वस्त्रसे जलकी बूंद निकल जाती है उसी तरह वे सूक्ष्म जीव निकलकर चले जाते हैं। किन्तु बादरोंका शरीर अल्प होनेपर भी बादर- ३० १. म वदोलम् । २. मणं मेणिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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