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________________ ३१४ गो० जीवकाण्डे दणिदं घातशरीरं स्थूलमक्कुमघातदेहं सूक्ष्ममक्कुं। तद्देहिगळं घातशरीररप्प स्थूलरुमघातदेहमप्प सूक्ष्मरुमप्परु। घातलक्षितं शरीरं येषां ते घातशरीराः अघातो देहो येषां ते अघातदेहाः एंदितु बाध्याबाध्यत्वपरिणति संभविसुगुमप्पुरिदं । तदेहमंगुलस्सासंखं भागस्स बिंदमाणं तु | आधारे थूलाओ सव्वत्थ णिरंतरा सुहुमा ॥१८४॥ तद्देहोंगुलस्यासंख्येयभागस्य वृंदमानस्तु । आधारे स्थूलाः सर्वत्र निरंतराः सूक्ष्माः ॥ आ बादरसूक्ष्मंगळप्प पृथ्वीकायिकादिचतुःप्रकारमप्प जीवंगळ शरीरंगळु घनांगुलासंख्यातैकभागमात्रंगळप्पुर्वक दोडे-सूक्ष्मवायुकायिकापर्याप्तकजघन्यशरीरावगाहं मोदल्गोंडु बादरपर्याप्त पृथ्वीकायिकोत्कृष्टशरीरावगाहनपथ्यंत ४२ नाल्वत्तेरडं स्थानोळं पल्यासंख्यातभागहारंगळु १० घनांगुलक्क संभविसुगुमप्पुरिदमदल्लदेयुमागमदोळु “बिपुण्णजहण्णोति य संखं संखं गुणं तत्तो" एंदसंख्यातगुणकारसंभववचनदिदमुमसंख्यातभागहाराभिव्यक्ति प्रसिद्धियक्कुं। सूक्ष्मापर्याप्तवातकायजघन्यावगाहनन्यासमिदु ६। ८ । २२ पृथ्वीकायबाद प।१९। ८1८1८।२२।१।९ aa संभवात् धातशरीरं स्थूलं भवति । अघातदेहः सूक्ष्मो भवति । तद्देहिनोऽपि घातशरीराः स्थूलाः, अघातदेहाः १५ सुक्ष्मा भवन्ति । घातोपलक्षितं शरीरं येषां ते घातशरीराः । 'अघातो देहो येषां ते अघातदेहा इति बाध्यत्वाबाध्यत्वपरिणतिसंभवात् ॥१८३॥ तेषां बादरसूक्ष्मपृथ्वीकायिकादिचतुर्विधजीवानां शरीराणि घनाङ्गलासंख्येयभागमात्राणि भवन्ति । सूक्ष्मवायकायिकापर्याप्तकजघन्यशरीरावगाहनादारभ्य बादरपर्याप्त पृथ्वीकायिकोत्कृष्टशरीरावगाहनपर्यन्तं द्वाच त्वारिंशत्स्थानेषु घनाङ्गुलस्य पल्यासंख्यातभागहारसंभवात् । अथवा परमागमे-वीपुण्णजहण्णोत्तियअसङ्घसङ्ख २० गुणं तत्तो। इत्यसंख्यातगुणकारसंभववचनात्तस्यासंख्यातभागहाराभिव्यक्तिप्रसिद्धः । तत्र तु सूक्ष्मापर्याप्तवात ६।८।२२ कायजघन्यावगाहनन्यासोऽयं प १९ । ८ । ८ । ८ । २२ । १९ पृथ्वीकायबादरपर्याप्तकोत्कृष्टावगाहनप्रमाण शरीरवाले स्थूल और अघात शरीरवाले सूक्ष्म होते हैं। जिनका शरीर घात सहित होता है अर्थात् घाता जाता है, वे घातशरीर हैं और जिनका शरीर घात रहित होता है, वे अघात शरीर हैं। इस प्रकार बाध्यत्व और अबाध्यत्व रूप परिणमन सम्भव होनेसे शरीर बादर२५ सूक्ष्म होते हैं ।।१८।। ___उन बादर और सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि चार प्रकारके जीवों के शरीर घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं। क्योंकि सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्तककी जघन्य शरीर अवगाहनासे लेकर बादरपर्याप्त पृथ्वीकायिककी उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त बयालीस स्थानोंमें घनांगुलका पल्यके असंख्यातवें भाग मात्र भागहार होता है । अथवा परमागममें कहा है कि 'दोइन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना पर्यन्त असंख्यातवें भाग गुणाकार है और आगे संख्यातवें भाग गुणाकार है' इस सूत्रसे बयालीसवें स्थानको असंख्यातसे गुणा करनेपर अगले स्थानमें संख्यात धनांगल प्रमाण अवगाहना होती है।अतः बयालीसवें स्थानमें घनांगुलका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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