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इन्द्रियमार्गणाप्ररूपणाधिकारः ॥७॥
अनंतमिंद्रियमार्गणयं प्रारंभिसुत्तमिद्रियशब्दक्के निरुक्तिपूर्वकमन्मं पेल्दपं ।
अहमिदा जह देवा अविसेसं अहमहति मण्णंता ।
ईसंति एक्कमेक्कं इंदा इव इंदिए जाण ॥१६४॥ अहमिंद्रा यथा देवा अविशेषमहमहमिति मन्यमानाः। ईशत एकमेकं इंद्रा इवेंद्रियाणि ५ जानीहि ।
ये तिगळु |वेयकादिभवरप्पऽहमिंद्रदेवर्कळु अहमहमेंदितु स्वामिभृत्यविशेषशून्यमं बगेयुत्तमेकैकमोरोबरु माज्ञादिलिनपरतंत्ररु। ईशते प्रभवंति स्वामिभावमं पोदुवरहंगे स्पर्शनादोंदियंगल स्पर्शनादिस्वस्वविषयंगलोळु ज्ञानमं पुट्टिसुवेडयोळु । ईशते परमुखाप्रेक्षतेयिदं प्रभविसुववदु कारदिंदमहमिद्ररते इंद्रियंगळे दितु।
श्रीमन्तं त्रिजगत्पूज्यं लोकालोकप्रकाशकम् ।
सप्तमं तीर्थकर्तारं श्रीसुपाश्र्वं नमाम्यहम् ॥७॥ अथेन्द्रियमार्गणां प्रारभमाणः इन्द्रियशब्दस्य निरुक्तिपूर्वकमर्थ कथयति
यथा ग्रेवेयकादिजाता अहमिन्द्रदेवा अहमहमिति स्वामिभृत्यादिविशेषशून्यं मन्यमाना एकैके भूत्वा आज्ञादिभिरपरतन्त्रोः सन्तः ईशते-प्रभवन्ति-स्वामिभावं श्रयन्ति तथा स्पर्शनादीन्द्रियाण्यपि स्पर्शादिस्वस्व- १५ विषयेषु ज्ञानमुत्पादयितुं ईशते-परानपेक्षतया प्रभवन्ति ततः कारणात् अहमिन्द्रा इव इन्द्रियाणीति सादृश्यार्था
___ लोकालोकके प्रकाशक जगत्पूज्य सप्तम तीर्थंकर भगवान् सुपार्श्वनाथ स्वामीको नमस्कार करता हूँ।
आगे इन्द्रिय मार्गणाको प्रारम्भ करते हुए इन्द्रिय शब्दका निरुक्तिपूर्वक अर्थ कहते हैं
___जैसे प्रैवेयक आदिमें उत्पन्न हुए अहमिन्द्रदेव स्वामी-सेवक आदिके भेदसे रहित 'मैं ही हूँ' इस प्रकार मानते हुए एक-एक होकर आज्ञा आदिके पराधीनतासे रहित होते हुए अपनेको स्वामी मानते हैं। उसी प्रकार स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्श आदि विषयों में ज्ञान उत्पन्न करनेके लिए अन्य इन्द्रियोंकी अपेक्षा न करते हुए स्वयं समर्थ होती हैं। इस कारणसे अहमिन्द्रोंके समान इन्द्रियाँ हैं । इस प्रकार सादृश्यका आश्रय लेकर इन्द्रिय २५ शब्दका निरुक्तिसे सिद्ध अर्थ हे शिष्य तू जान ।।
__विशेषार्थ-जैसे अहमिन्द्र देव अपने-अपने व्यापारमें स्वतन्त्र होते हैं , उसी तरह इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयको ग्रहण करने में स्वतन्त्र हैं। कोई इन्द्रिय अपने विषयको
१. दिजा अ-ब । २. था इ-ब ।
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