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________________ २८२ गो० जीवकाण्डे अनंतरं संसारिविलक्षणमप्प सिद्धगतियं व्यक्तं माडिदपं । जाइजरामरणभया संयोगविजोगदुक्खसण्णाओ। रोगादिगा य जिस्से ण संति सा होदि सिद्धगई । १५२॥ जायिजरामरणभयानि संयोगवियोगदुःखसंज्ञाः। रोगादिकाश्च यस्यां न संति सा भवति ५ सिद्धगतिः। जातिजरामरणभपंगळुमनिष्टसंयोगइष्टवियोगदुःखसंजेगळं रोगादिकंगळिनप्प विविधवेदनगळुमावुदोंदु गतियोळिल्लदिप्पुवा कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षप्रादुर्भूतसिद्धत्वपर्यायलक्षणमप्प सिद्धगतियुमुंटु। इरिदं संसारिगत्यपेयि गतिमार्गणगे चतुम्विधत्वं पेळल्पटुदेके दोडे मत्ते मुक्तगत्य पेयिदं अदक्क तद्विलक्षणादणिदं गतिमार्गणेयोळविवक्षितत्वमप्पुरदं ।। १०. अनंतरं गतिमार्गणयोल जीवसंख्येयं पेळ्वातनभेवरं नरकगतियोळ गाथाद्वदिदं तत्संख्येयं पेन्द। सामण्णा णेरइया घणअंगुलबिदियमूलगुणसेढी । बिदियादि बारदस अडछत्तिदणिजपदहिदा सेढी ॥१५३॥ सामान्यनारका घनांगुलद्वितीयमूलगुणश्रेणिः । द्वितीयादिद्वादशदशमाष्टमषष्ठतृतीय१५ द्वितीयनिजपदहता आणिः। घादिपृथ्वीभेदविवक्षेयं माडदे सामान्यनारकर सर्वपश्विजर घनांगुलद्वितीयवर्गमूळगुणितजगच्छ्रेणिप्रमितरप्पर संदृष्टि २ मू.। वंशादियधस्तनपृश्विगळोळु नारकरु मत्ते यथाक्रमदि अथ संसारविलक्षणां सिद्धगति व्यनक्ति जातिजरामरणभयानि, अनिष्टसंयोगेष्टवियोगदुःखसंज्ञाः, रोगादिविविधवेदनाश्च यस्यां न सन्ति सा २० कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षप्रादुर्भूतसिद्धत्वपर्यायलक्षणा सिद्धगतिरस्ति । अत एव संसारिगत्यपेक्षया गतिमार्गणायाश्चतुविधत्वमुक्तं । मुक्तगत्यपेक्षया तस्यास्तद्विलक्षणत्वेन गतिमार्गणायामविवक्षितत्वात् ॥१५२॥ अथ गतिमार्गणायां जीवसंख्यां कथयस्तावन्नरकगतौ गाथाद्वयेनाह धर्मादिपृथ्वीभेदविवक्षामकृत्वा सामान्यनारकाः सर्वपृथ्वीजाः घनाङ्गुलद्वितीयवर्गमूलगुणितजगच्छ्रेणिगुणोंसे युक्त धातुमल दोषसे रहित मनोहर शरीरोंसे जो भासमान हैं,वे जीव परमागममें देव २५ कहे गये हैं ॥१५१॥ आगे संसारसे विलक्षण सिद्धगतिको कहते हैं जन्म, जरा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, दुःख, संज्ञा, रोग आदि नाना प्रकारकी वेदना जिसमें नहीं हैं, वह समस्त कर्मोके सर्वथा विनाशसे प्रकट हुई सिद्ध पर्याय रूप सिद्धगति है ॥१५२॥ . आगे गति मार्गणामें जीवोंकी संख्या कहते हुए सर्वप्रथम नरकगतिमें दो गाथाओंसे संख्या कहते हैं ___ धर्मा आदि पृथ्वीके भेदोंकी विवक्षा न करके सभी पृथ्वीके सब नारकी घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणी प्रमाण हैं। तथा वंशा आदि नीचेकी छह पृथिवियोंमें नारकी क्रमसे जगतश्रेणीके बारहवें, दसवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूलसे जगत३५ १-२. म सिद्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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