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________________ २६८ गो० जीवकाण्डे त्रींद्रियंगळोळु मन श्रोत्रचक्षुरिंद्रियावशेषंगळेळु प्राणंगळप्पुवु । द्वौद्रियंगळोळं मनःश्रोत्रचक्षुघ्राणा. वशेषंगळारु प्राणंगळप्पुवु । एकेंद्रियंगळोळु मनःश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनवाग्बलप्राणावशेषंगळ् नाल्कु प्राणंगळप्पुवु। इंतु पर्याप्तकरोळु प्राणंगळ्गे स्वामिभेदमप्पुरिदं संख्याभेदं पेळल्पटुदु । पर्याप्तेतररप्प अपर्याप्तरोळु संजिअसंज्ञिपंचेंद्रियरोळु प्रत्येकमेलेळु प्राणंगळप्पुवेकेंदोडे पर्याप्त५ काल संभविगळप्पुच्छ्वासवाग्मनोबलप्राणंगितु मिल्लियसंभवमप्पुदु कारणमागि शेषंगळोळु चतुरिद्रियादि एकेंद्रियावसानमादऽपर्याप्तकरोलु यथासंख्यं श्रोत्रचक्षुघ्राणरसनेंद्रियप्राणावशेष प्राणंगळु षट्पंचचतुस्त्रिसंख्याक्रांतप्राणंगळप्पुवु। ___ इंतु भगवदर्हरमेश्वर चारुचरणारविदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमान श्रीमद्रायराजगुरु मंडलाचार्य महावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिसिद्धांत१० चक्रवत्ति श्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्ट श्रीमत्केशवण्णविरचित गोम्मटसारकर्णाटवृत्तिजीवतत्व प्रदीपिकेयोळु जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळु चतुर्थ प्राणप्ररूपणाधिकारं निगदितमायतु । असंज्ञिषु मनोरहिता नव । चतुरिन्द्रियेषु मनःश्रोत्रेन्द्रियावशेषा अष्टौ । त्रीन्द्रियेषु मनःश्रोत्रचक्षुरिन्द्रियावशेषाः सप्त । द्वीन्द्रियेषु मनःश्रोत्रचक्षुर्घाणावशेषाः षड् भवन्ति । अन्तिमे एकेन्द्रिये द्वीन्द्रियोक्तप्राणेषु द्वौ ऊनाविति मनःश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनवाग्बलप्राणावशेषाश्चत्वारः प्राणा भवन्ति । तथा इतरेषु अपर्याप्तजीवेषु तु संज्ञासंज्ञिप१५ ञ्चेन्द्रिययोः प्रत्येकं प्राणाः सप्तव भवन्ति पर्याप्तकालसंभविनां उच्छ्वासवाग्मनोबलप्राणानामत्रासंभवात् । शेषेषु चतुरिन्द्रियायेकेन्द्रियावसानेषु अपर्याप्तेषु यथासंख्यं श्रोत्रचक्षुणिरसनेन्द्रियावशेषाः षट्पञ्चचतुस्त्रिसंख्या प्राणा भवन्ति ।। १३३ ॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्ररचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीव काण्डे विंशतिप्ररूपणासु प्राणप्ररूपणानाम चतुर्थोऽधिकारः ॥४॥ प्राणय २० आनुपूर्वीसे दोइन्द्रिय पर्यन्त पर्याप्तकोंमें एक-एक प्राण घटता है। असंज्ञीपंचेन्द्रियोंमें मनके बिना नौ प्राण होते हैं। चतुरिन्द्रियोंमें मन और श्रोत्रेन्द्रियको छोड़कर शेष आठ प्राण होते हैं । त्रीन्द्रियोंमें मन, श्रोत्र और चक्षुके सिवाय शेष सात प्राण होते हैं। दोइन्द्रियोंमें मन, श्रोत्र, चक्षु और घ्राणके सिवाय शेष छह प्राण होते हैं । अन्तिम एकेन्द्रियमें दोइन्द्रियमें कहे गये प्राणों में से दो कम होते हैं। इस तरह मन, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और वचनबलप्राणोंमें २५ से शेष चार प्राण ही होते हैं । इतर अपर्याप्त जीवोंमें संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रियों में से प्रत्येकके सात प्राण ही होते हैं। क्योंकि पर्याप्तकालमें होनेवाले उच्छ्वास, वचनबल और मनोबल नहीं होते। शेष चौइन्द्रियसे लेकर एकेन्द्रिय पर्यन्त अपर्याप्तों में क्रमसे श्रोत्र, चक्ष, घ्राण और रसनेन्द्रियको छोड़कर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते हैं ॥१३३॥ इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव ३० परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंको धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीयकाण्डकी बीस प्ररूपणाओं में से प्राण प्ररूपणा नामक चतुर्थ महा अधिकार सम्पूर्ण हुभा ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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