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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २६७ इंदियकायाऊणि य पुण्णापुण्णेसु पुण्णगे आणा । बीइंदियादिपुण्णे वचीमणोसण्णिपुण्णेव ।।१३२॥ इंद्रियकायायूंषि च पूर्णापूर्णेषु पूर्णके आनाः। द्वौद्रियादिषु पूर्णे वाक्मनःसंज्ञिपूर्णे एव । इंद्रियकायायुष्प्राणंगळु पर्याप्तकरोळमपर्याप्तकरोळमप्पुविवु साधारणप्राणंगळुच्छ्वासनिःश्वासप्राणं पर्याप्तकरोळेयकुं मे वोडे तत्कारणमप्पुच्छ्वासनामकर्मोदयक्क पर्याप्तकालदोळे ५ संभवमप्पुरिदं । द्वौद्रियादिगोळ पंचेंद्रियावसानमादवरोळ पर्याप्तरोळे बाग्बलप्राणं संभविसुगुमेके दोडे तद्धेतु स्वरनामकर्मोदयक्क पर्यातकरोळमल्लदेडपर्याप्तकरोळ संभवमल्लप्पुरदं । पर्याप्तकसंज्ञिपंचेंद्रियंगळोळे मनोबलप्राणमक्कुं तन्निबंधनमप्प वीय्यतिराय नोइंद्रियावरणक्षयोपशमक्कन्यत्रासंभवमप्पुरवं। ___ अनंतरं वशप्राणंगळ्गेद्रियावि जीवंगळोळ संख्यावधारणनियममं माडल्वेडि मुंदण गाथा १० सूत्रमं पेळ्दपरु : दससण्णीणं पाणा सेसेगूणंतिमस्स बेऊणा। पज्जत्तेसिदरेस य ससदुगे सेसगेगूणा ॥१३३॥ दश संज्ञिनां प्राणाः शेषेष्वेकोनाः चरमस्य द्विहीनाः पर्याप्तकेष्वितरेषु च सप्त द्विके शेषकेष्वेकोना। परगे पेळ्द स्वामि निदिदं ई विभागं पडयल्पडुगुमददोड:-संजिपंचेंद्रियपर्याप्तकरोळ दशप्राणंगळुमप्पुवु॥ शेषासंज्ञिमोदलागि पश्चादनुपूनियिदं द्वौद्रियावसानमादवरोळु पर्याप्तकरोळु एकैकप्राणोनंगळु संभविसुगुमंतिममप्पेकेंद्रियदोळु द्विप्राणोन प्राणंगळप्पुवुवदेते दोर्ड असंज्ञिगळोलु मनोविरहितमागि नवप्राणंगळप्पुवु । चतुरिंद्रियगळोळु मनःश्रोत्रंद्रियावशेषंगळे टु संभविसुवुवु । __इन्द्रियकायायूंषीति त्रयः प्राणाः पर्याप्तेष्वपर्याप्तेषु च साधारणा भवन्ति । उच्छ्वासनिश्वासप्राणः २० पर्याप्तकेष्वेव भवति तत्कारणोच्छवासनामकर्मोदयस्य पर्याप्तकाल एव संभवात् । द्वीन्द्रियादिषु पञ्चेन्द्रियावसानेषु पर्याप्तेष्वेव वाग्बलप्राणः संभवति तद्धतुस्वरनामकर्मोदयस्यान्यत्र संभवाभावात् । मनोबलप्राणः पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेष्वेव संभवति तन्निबन्धनवीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमस्यान्यत्रासंभवात् ॥१३२॥ अथ प्राणानामेकेन्द्रियादिजीवेष संख्यानियममवधारयति समनन्तरोक्तस्वामिनियमनायं विभागो लभ्यते तद्यथा-संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तकेषु दश प्राणा २५ भवन्ति । शेषेषु असंश्यादिषु पश्चादानुपूर्व्या द्वीन्द्रियावसानेषु पर्याप्तकेषु एकैकोनाः प्राणा भवन्ति । तथाहि इन्द्रिय, काय और आयु ये तीन प्राण पर्याप्तों और अपर्याप्तोंमें समान रूपसे होते हैं। उच्छ्वासनिश्वास प्राण पर्याप्तकोंमें ही होता है। क्योंकि उसका कारण जो उच्छ्वासनामकर्मका उदय है,वह पर्याप्तकालमें ही होता है। दोडन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियपर्यन्त पर वचनबलप्राण होता है, क्योंकि उसका कारण स्वरनामकर्मका उदय है और वह पर्याप्तोंमें ही ३० होता है। मनोबलप्राण पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही होता है क्योंकि उसका कारण है नोइन्द्रियावरणका क्षयोपशम । और वह अन्य किसीके नहीं होता ।।१३२॥ ___ आगे एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें प्राणोंकी संख्याका नियम करते हैं इससे पहलेकी गाथामें जो स्वामीका नियम किया है उसीसे आगे कहा-मेद प्रकट होता है । जो इस प्रकार है-संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें दस प्राण होते हैं। शेष असंज्ञीसे लेकर पश्चात् ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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