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________________ २६२ गो० जीवकाण्डे सुगुम दितु गुणस्थानचतुष्टयदोळु निर्वृत्यपर्याप्तकनियममं पेळल्पटुदो गुणस्थानचतुष्टयदोळं शेषमिश्रगुणस्थानदोळं देशसंयतगुणस्थानदोळ्मप्रमत्तादि सयोगकेव लिपयंतमिई गुणस्थानंगळोळु पर्याप्तजीवसंभवमक्कुमेक दोडे तत्कारणभूतपर्याप्तनामकम्र्मोदयक्के सर्वत्र सद्भावमप्पुरिदं । अनंतरमपर्याप्तकालदोळ सासादनंगमसंयतंगं नियदिदमुत्पत्त्यभावस्थानंगळं पेळ्दपं । हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसिवणभवणसव्वइत्थीणं । पुण्णिदरे ण हि सम्मो ण सासणो णारया पुण्णे ॥१२८॥ अधस्तनषट्पृथ्वीनां ज्योतिव्यंतरभावनस+स्त्रीणां । पूर्णेतरेषु नास्ति सम्यग्दृष्टिर्न सासादनो नारकापूर्णे ॥ नरकगतियोळु रत्नप्रभयो पुट्टिदरं बिटुलिदधस्तनषड्भूमिजरप्प नारकरुगळ ज्योतिव्यंतरभावनदेवरुगळ सर्वतिय॑ग्मनुष्यर देवगतिसंबंधिगळप्प स्त्रीयर १. नित्यपर्याप्तकालदोळु सम्यक्त्वग्रहणायोग्यकालमप्पुरिदम सम्यक्त्वपूर्वकं मरणमाद तिर्यग्मानु षरुं देवनारकरुं यथायोग्यमागि शर्कराप्रभादिषड्भूमिजरप्प निर्वृत्यपर्याप्तकरुं भवनत्रयनिर्वृत्यपर्याप्तकरुं सर्वतिर्यग्मनुष्यदेवस्त्रीयरप्प निर्वृत्यपर्याप्तकरागि पुट्टरु । देवनारकतिर्यग्मनुष्यस्त्रीयरप्प निर्वृत्यपर्याप्तकरागि पुटुवरु मा येडेगळोळ्पुटुवडं विराधितसम्यक्त्वरमप्प मिथ्या शरीरपर्याप्तिकालपर्यन्तं च निवृत्त्यपर्याप्तकत्वसंभवात् । पुनस्तत्रापि-उक्तगुणस्थानचतुष्टयेऽपि शेषेषु मिश्रदेशसंयताप्रमत्तादिसयोगकेवलिपर्यन्तगणस्थानेषु च पर्याप्तकजीवः संभवति तत्कारणस्य पर्याप्तिनामकर्मोदयस्य तत्र सर्वत्र संभवात ॥१२७॥ अथापर्याप्तकाले सासादनासंयतयोनियमेन अभावस्थानान्याह नरकगतौ रत्नप्रभारहितशेषषड्भूमिनारकाणां ज्योतिय॑न्तरभावनदेवानां सर्वतिर्यग्मनुष्यदेवस्त्रीणां च निर्वृत्यपर्याप्तके सम्यग्दृष्टिर्नहि नास्त्येव, तदा तद्ग्रहणयोग्यकालाभावात् सम्यक्त्वेन सह मृतस्य तिर्यग्मनुष्यस्य तत्रोत्पत्त्यभावाच्च । मरणे विराधितसम्यक्त्वमिथ्यादृष्टिसासादनानां यथासंभवं तत्रोत्पत्ती विरोधाभावात् । कैसे होता है ? इसका उत्तर यह है कि आहारक शरीरके प्रारम्भ समयसे लेकर उसकी निर्वृत्यपर्याप्ति और पर्याप्ति प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें ही सम्भव है, यह बात परमागममें प्रसिद्ध है । ऋद्धिप्राप्त भी मुनि अप्रमत्त आदि ऊपरके गुणस्थानोंमें अपनी ऋद्धिका प्रयोग नहीं करते ।।१२७॥ ___ आगे अपर्याप्तकालमें सासादन और असंयतगुणस्थानका जहाँ नियमसे अभाव होता २५ है, उन्हें कहते हैं __ नरकगतिमें रत्नप्रभाके विना शेष छह भूमिके नारकियोंमें, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें, समस्त तियंच मनुष्य और देवगति सम्बन्धी स्त्रियों में निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें सम्यग्दर्शन नहीं होता। क्योंकि उस अवस्था में सम्यक्त्वके ग्रहण योग्य काल नहीं है। तथा सम्यक्त्वके साथ मरे तिथंच और मनुष्य वहाँ उत्पन्न नहीं होते। मरनेसे पर्व सम्यक्त्वकी विराधना करके मिथ्यादृष्टि या सासादन होनेवाले यथासम्भव वहाँ उत्पन्ने होते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। तथा सातों पृथिवियोंके नारकियोंके निवृत्यपर्याप्तकोंमें १. म योलु बि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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