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________________ ३० गोम्मटसार जीवकाण्ड ५. संयतासंयत-जो संयत और असंयत दोनों होते हैं, वे संयतासंयत हैं। इनके सम्बन्ध में जीवकाण्ड, गा. ३१ में कहा है जो एकमात्र जिनदेव के वचनों में श्रद्धा रखते हुए एक ही समय त्रस हिंसा से विरत और स्थावर हिंसा से अविरत होता है, वह विरताविरत या संयतासंयत है। आगे के सब गुणस्थान संयमी साधुओं के ही होते हैं। ६. प्रमत्तसंयत-प्रकर्ष से मत्त जीवों को प्रमत्त कहते हैं और अच्छी तरह से विरत या संयमी को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयमी है, वह प्रमत्त संयत है। यहाँ प्रमाद से वही प्रमाद विवक्षित है जो संयम का घातक नहीं है। यहाँ प्रमत्त शब्द अन्त दीपक है जो छठे से पहले के सब गुणस्थानों अस्तित्व सूचित करता है। ७. अप्रमत्तसंयत-जो पन्द्रह प्रमादों से रहित संयमी हैं, वे अप्रमत्त संयत हैं। उनके सम्बन्ध में जीवकाण्ड गा. ४६ में कहा है-जिसके समस्त प्रमाद नष्ट हो गये हैं, जो व्रत, गुण, शील से शोभित हैं। जो मोहनीय कर्म का न तो उपशम करता है न क्षय करता है; केवल ध्यान में लीन रहता है, वह अप्रमत्त संयत है। सातवें गुणस्थान से आगे के कुछ गुणस्थान दो श्रेणियों में विभाजित हैं : एक का नाम उपशम श्रेणी है और दूसरे का क्षपक श्रेणी। जिसमें जीव उत्तरोत्तर मोह का उपशम करता है, वह उपशम श्रेणी है। उपशम श्रेणी के गुणस्थान हैं-अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय और उपशान्त कषाय। उपशान्त कषाय में चढ़कर जीव नियम से गिरता है और सम्हलने पर पुनः ऊपर चढ़ सकता है; किन्तु क्षपक श्रेणि पर चढ़ा जीव मोह का क्षय करते हुए ऊपर चढ़कर मोक्ष प्राप्त करता है। क्षपक श्रेणि के गुणस्थान हैं-अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, क्षीणमोह। ८. अपूर्वकरण-करण का अर्थ परिणाम है, और जो पहले प्राप्त नहीं हुए, उन्हें कहते हैं-अपर्व। ऐसे अपूर्व परिणामवाले जीव अपूर्वकरण कहे हैं। अपूर्वकरण रूप परिणामों को धारण करनेवाले जीव मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का क्षय अथवा उपशम करने में तत्पर होते हैं। ६. अनिवृत्तिकरण-एक समयवर्ती जीवों के जिस प्रकार शरीर के आकार वर्णादि भिन्न-भिन्न होते हैं, उस प्रकार जिन एक समयवर्ती सब जीवों के परिणाम भिन्न-भिन्न न होकर समान ही होते हैं; क्योंकि इस गुणस्थान में एक समय में एक ही परिणाम है, अपूर्वकरण की तरह बहुत परिणाम नहीं होते, ऐसे समान परिणामवाले वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती होते हैं। उनका ध्यान अत्यंत निर्मल होता है और वे उस ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी वन को जलानेवाले होते हैं। १०. सूक्ष्मसाम्पराय-सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं। अर्थात् जिन जीवों के केवल सूक्ष्म लोभ कषायमात्र शेष रहती है, शेष समस्त मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय हो जाता है,वे सूक्ष्म साम्पराय संयमी कहलाते हैं। ११. उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ-जिनकी कषाय उपशान्त हो गई है, उन्हें उपशान्त कषाय कहते हैं। जिनका राग नष्ट हो गया है, उन्हें वीतराग कहते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मों को छद्म कहते हैं, उनमें जो रहते हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ हैं, वे वीतराग छद्मस्थ हैं। जो उपशान्त कषाय होते हुए वीतराग छद्मस्थ हैं, वे उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ हैं। इस गुणस्थान में समस्त कषाय (मोहनीयकर्म) उपशान्त हो जाती हैं, अतः उन्हें उपशान्त कषाय कहते हैं। १२. क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ-जिनकी कषाय क्षीण हो गई हैं, वे क्षीण कषाय हैं। और क्षीण कषाय होने के साथ जो वीतराग छद्मस्थ हैं, वे क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ हैं। उनका सम्पूर्ण मोह नष्ट हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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