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प्रस्तावना
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१३. सयोगकेवली-जिस ज्ञान में इन्द्रिय, प्रकाश और मन की अपेक्षा नहीं होती, उसे केवल अर्थात् असहाय कहते हैं। वह केवल ज्ञान जिनके होता है, उन्हें केवली कहते हैं। और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। जो योग सहित होते हैं, उन्हें सयोग कहते हैं। इस तरह जो योग सहित केवल ज्ञानी होते हैं, उन्हें सयोगकेवली कहते हैं। इसमें जो सयोग पद है, वह नीचे के सब गुणस्थानों में योग का अस्तित्वसूचक है।
१४. अयोगकेवली-जिनके योग नहीं होता, वे अयोग होते हैं। ऐसे योगरहित केवल ज्ञानी अयोगकेवली होते हैं। जीवकाण्ड गा. ६५ में कहा है-जिन्होंने अठारह हजार शील के स्वामित्व को प्राप्त कर लिया है, जिनके सम्पूर्ण कर्मों का आस्रव रुक गया है तथा नवीन कर्म बन्धन से भी रहित हैं, वे अयोगकेवली होते हैं। इन चौदह गुणस्थानों से रहित सिद्ध जीव होते हैं। वे कृतकृत्य हो चुके हैं। उन्होंने अपना सब करणीय कर लिया है, कुछ करना शेष नहीं है। उनके सब कर्म बन्धन नष्ट हो गये हैं।
इस प्रकार मिथ्यात्व से ऊपर चढ़ते हुए मोक्षमार्गी संसारी जीवों के भावों के उतार-चढ़ाव को लेते हुए ये चौदह गणस्थान कहे गये हैं। ये समस्त संसारी जीवों की हीन और उच्चदशा का चित्र उपस्थित करके मनुष्य को अपने विकास की प्रेरणा देते हैं।
मार्गणा
मार्गणा का अर्थ है-खोजना। चौदह गुणस्थान जिसमें या जिनके द्वारा खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। जीवकाण्ड गा. १४१ में कहा है कि परमागम में जीव जिस प्रकार देखे गये हैं, उसी प्रकार से वे जिन नारक आदि पर्यायों में या जिन नारक आदि पर्यायों के द्वारा खोजे जाते हैं, वे मार्गणा हैं और वे चौदह हैं। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहार इनमें या इनके द्वारा जीवों को खोजा जाता है।
१. गति-गति नाम कर्म के उदय से जीव की जो चेष्टाविशेष होती है, उसे गति कहते हैं अथवा जिसके निमित्त से जीव चतुर्गति में जाते हैं, उसे गति कहते हैं। गति चार हैं-नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देव गति। नरक गति में और देवगति में प्रारम्भ के चार ही गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचगति में प्रारम्भ के पाँच होते हैं, मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान होते हैं।
२. इन्द्रिय-इन्द्र अर्थात् आत्मा के चिह्नविशेष को जिनके द्वारा वह जानता है, इन्द्रिय कहते हैं। वे पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये इन्द्रियाँ क्रम से एक-एक बढ़ती हुई होती हैं। इसी से जीव एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय होते हैं। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पति कायिक जीव एकेन्द्रिय होते हैं। उन्हें ही स्थावर कहते हैं। तिर्यंच एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। किन्तु नारकी मनुष्य और देव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। पंचेन्द्रिय मनरहित और मनसहित भी होते हैं, उन्हें क्रम से असंज्ञी और संज्ञी कहते हैं। एकेन्द्रिय से चौइन्द्रिय तक सब मनरहित असंज्ञी होते हैं। इनमें पहला ही गणस्थान होता है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के भी पहला गणस्थान होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही चौदह गुणस्थान हो सकते हैं।
३. काय-काय शरीर को कहते हैं। उसके दो भेद हैं। स्थावर और त्रस, एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहते हैं, उनके पाँच भेद पृथिवीकाय आदि हैं। और दोइन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक को त्रस कहते हैं। स्थावरों के एक पहला ही गुणस्थान होता है। त्रसों के चौदह तक हो सकते हैं।
४. योगमार्गणा-मन-वचन-काय के निमित्त से होनेवाली क्रिया से युक्त आत्मा के जो शक्ति विशेष उत्पन्न होती है जो कर्मों के ग्रहण में कारण है, उसे योग कहते हैं। योग के तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग, काययोग। मनोयोग के चार भेद हैं-सत्य, असत्य, उभय, अनुभय। इसी तरह वचनयोग के भी चार भेद हैं।
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