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प्रस्तावना
२६
विषय-परिचय
गुणस्थान-जीवकाण्ड का मुख्य प्रतिपाद्य विषय गुणस्थान और मार्गणास्थान हैं। अतः यहाँ उनके सम्बन्ध में संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है
गुणस्थान का एक नाम जीवसमास भी है। जिसमें जीव भले प्रकार रहते हैं, उसे जीवसमास कहते हैं। जीव रहते हैं-गुणों में अर्थात् भावों में। और वे भाव हैं पाँच-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक। कर्मों के उदय से होनेवाले भाव को औदयिक कहते हैं। कर्मों के उपशम से होनेवाले भाव को औपशमिक कहते हैं। कर्मों के क्षय से होने वाले भाव को क्षायिक कहते हैं। कर्मों के क्षयोपशम से होनेवाले भाव को क्षायोपशमिक कहते हैं। और कर्मों के उदयादि के बिना जीव के स्वभाव मात्र से उत्पन्न होनेवाले भाव को पारिणामिक कहते हैं। इन भावों या गुणों के साहचर्य से आत्मा भी गुण कहलाता है। इसी से जीवकाण्ड गाथा ८ में कहा है
'दर्शन मोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम आदि अवस्थानों के होने पर उत्पन्न हुए जिन परिणामों से युक्त जीव देखे जाते हैं; उन जीवों को सर्वज्ञदेव ने गुण संज्ञावाला कहा है।'
पंचास्तिकाय' में गाथा ५८ की व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रजी ने कहा है-कर्म के बिना जीव के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम भी नहीं होते। अतः क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, औपशमिक भाव कर्म कृत मानना चाहिए। पारिणामिक भाव तो अनादि निधन स्वाभाविक भाव है। क्षायिक भाव स्वभाव की व्यक्ति रूप होने से यद्यपि अनन्त है; तथापि कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण कर्मकृत ही है।
इस तरह चारों भावों को कर्मकृत बतला कर पुनः कहते हैं-अथवा उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम रूप चार अवस्थाएँ द्रव्य कर्म की हैं; एक पारिणामिक अवस्थावाले जीव की नहीं है। इसलिए उदयादि से होने वाले आत्मा के भावों को निमित्तभूत उस प्रकार की अवस्था रूप से स्वयं परिणमित होने के कारण द्रव्य कर्म भी व्यवहारनय से आत्मा के भावों का कर्ता होता है। अतः संसारी जीव यथायोग्य इन भाववाले होते हैं। इसी से वे चौदह गुणस्थानों में विभाजित किये गये हैं।
१. मिथ्यादृष्टि-पहला गुणस्थान मिथ्यादृष्टि है। जिनकी दृष्टि मिथ्या होती है, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं। दृष्टि, रुचि, श्रद्धा, प्रतीति के विपरीत होने से वे जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं। उन्हें धर्म में रुचि नहीं होती।
२. सासादन सम्यग्दृष्टि-अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो गया है और मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्व परिणाम को अभी प्राप्त नहीं हुआ है; किन्तु मिथ्यात्व के अभिमुख है, वह सासादन सम्यग्दृष्टि है। जीवकाण्ड गाथा २० में कहा है-सम्यग्दर्शन रूपी रत्न पर्वत से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व रूपी भूमि के अभिमुख है, अतएव जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो गया है, वह जीव जब तक मिथ्यात्व में नहीं आता, तब तक सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है। ___३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि-जिस जीव की दृष्टि, श्रद्धा, रुचि या प्रतीति समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की रिली-मिली होती है; जैसे दही और गुड़ मिले होते हैं, उन्हें पृथक् करना शक्य नहीं है, उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
४. असंयत सम्यग्दृष्टि-जिसकी दृष्टि या श्रद्धा समीचीन है, वह सम्यग्दृष्टि है और संयम से रहित सम्यग्दृष्टि को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इसके सम्बन्ध में जीवकाण्ड में कहा है-जो न तो इन्द्रियों के विषयों से विरत है और न त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, केवल जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों का श्रद्धान करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है।
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