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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २५७ मरणजन्मंगळगेकेंद्रियादिजीवंगळोळु संभविसुव प्रमाण मं पेळ्दपं । सीदी सट्ठी तालं वियले चउवीस होति पंचक्खे । छावढि च सहस्सा सयं च बत्तीसमेयक्खे ॥१२४॥ अशीतिःषष्टिःचत्वारिंशद्विकले चतुविशतिः पंचाक्षे षट्षष्टिसहस्राणि शतं च द्वात्रिंशदेकाले॥ एकेंद्रियंगळ्गे द्वात्रिंशच्छताभ्यधिकषट्षष्टिसहस्रंगळ निरंतरक्षुद्रभवंगळप्पवु ६६१३२। ५ दानुमोर्वमेकेंद्रियं लब्ध्यपर्याप्तकजीवं तद्भवप्रथमसमयं मोदगो डुच्छ्वासाष्टादशैकभागमात्रकालमं स्वस्थितियं जीविसि सत्तु मत्तमल्लियेकेंद्रियंगळोळ् पुट्टि मत्तं तावन्मात्रस्थितियं जीविसि सत्तितु निरंतरमेकेंद्रियंगोळु लब्ध्यपर्याप्तकंगेत्तलानुं बहुभवंगळ संभविपोडमा पेळ्द संख्याप्रमाणम ६६१३२। नतिक्रमिसवु । इन्ते द्वोंद्रियादिगळोळं निरंतरक्षुद्रभवप्रकारंगळ योजिसल्पडुवुमन्ते द्वींद्रियलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतरक्षुद्रभवंगळभत्तु ८० त्रोंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतर १० क्षुद्रभवंगळरुवत्तु ६० चतुरिंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतरक्षुद्रभवंगळुमंत नाल्वत्तु ४० पंचेद्रियलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतरक्षुद्रभवंगळिप्पत्तनाल्कु २४ इवरोळ्मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतरक्षुद्रभवंगेळे टु ८ । असंज्ञिपंचेंद्रियलब्ध्यप-मकन निरंतर क्षुद्रभवगैलेटु ८ संज्ञिपंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त अथ तन्मरणजन्मनां एकेन्द्रियादिजीवसंभविनां तत्कालस्य च प्रमाणमाह ते निरन्तरक्षद्रभवा लब्ध्यपर्याप्तकेषु एकेन्द्रिये द्वात्रिंशदग्रशताधिकषट्षष्टिसहस्राणि भवन्ति १५ ६६१३२ । तद्यथा-कश्चिदेकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकः तद्भवप्रथमसमयादारभ्य उच्छ्वासाष्टादर्शकभागमात्री स्वस्थिति जीवित्वा पुनस्तदेकेन्द्रिये एवोत्पन्नः, पुनस्तावन्मात्रस्वस्थिति जीवितः । एवं निरन्तरमेकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकभवानेव बहुबारं गृह्णाति । तदा उक्तसंख्यां ६६१३२ नातिक्रामति । एवमेव द्वीन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तके अशीति ८०, त्रीन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तके षष्टि ६०, चतुरिन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तके चत्वारिंशत् ४०, पञ्चेन्द्रिये लब्ध्य उसका भव सब जीवोंके भवसे अति अल्प होता है, इसलिए उसे क्षुद्रभव कहते हैं । लब्ध्य- २० पर्याप्तकको छोड़कर अन्य किसी भी जीवका उच्छ्वासके अठारहवें भाग मात्र भव नहीं होता। एक भवके कालका प्रमाण यदि एक उच्छ्वासका अठारहवाँ भाग मात्र है, तो छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस क्षुद्रभवोंके कितने उच्छ्वास होते हैं ? ऐसा त्रैराशिक करनेपर पृथिवीकायिकसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अव्यवहित क्षुद्रभवोंका काल तीन हजार छह सौ पिचासी तथा एक त्रिभाग ३६८५३ उच्छ्वास प्रमाण अन्तर्मुहूते होता है ।।१२३॥ २५ आगे एकेन्द्रिय आदि जीवोंके होनेवाले उन मरण और जन्मोंका तथा उनके कालका प्रमाण कहते हैं वे निरन्तर क्षुद्रभव लब्ध्यपर्याप्तोंमें एकेन्द्रियोंके छियासठ हजार एक सौ बत्तीस ६६१३२ होते हैं । सो इस प्रकार हैं-कोई एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक अपने भक्के प्रथम समयसे लेकर उच्छ्वासके अठारहवें भागमात्र अपनी स्थिति प्रमाण जीवित रहकर पुनः उस ३० एकेन्द्रिय पर्यायमें उत्पन्न हुआ। और एक उच्छ्वासके अठारहवें भाग काल तक जीवित रहा। इस प्रकार निरन्तर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके भवोंको ही बार-बार ग्रहण करता है। तब उक्त संख्या ६६१३२ का उल्लंघन नहीं करता। इसी तरह दोइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें अस्सी ८०, त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें साठ ६०, चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त कमें चालीस ४०, पंचेन्द्रिय १. ममं कालप्रमाणमुमं । २. मगल्नेंटु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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