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________________ २५६ गो जीवकाण्डे अनंतरलब्ध्यपर्याप्तकस्वरूपनिरूपणं माडिदपं । उदए दु अपुण्णस्स य सगसगपज्जत्तियं ण णिवदि । अंतोमुहुत्तमरणं लद्धियपज्जत्तगो सो दु ॥१२२॥ उदये त्वपूर्णस्य च स्वक-स्वकपर्याप्ति न निष्ठापयति । अंतर्मुहूर्तमरणं लब्ध्यपर्याप्तकः सतु । ५ अपर्यापनामकर्मक्कुदयमागुत्तिरलेकेंद्रियविकलसंज्ञिजीवंगळ तंतम्म पर्याप्तिगळ्नाल्कुमदु मारुगळं निष्ठापनमं माळ्परल्लरुमवर्गळुमुच्छ्वासाष्टादर्शकभागमात्रांतम्मुंहतंदोळे मरणमनुळ्ळर ॥ लब्ध्यपर्याप्तरंदु पेळल्पट्टरु । लब्ध्या स्वस्वपर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतयाऽपर्याप्ता अनिष्पन्ना लब्ध्यपर्याप्तका एंदितु निरुक्तिसिद्धरप्परु । लब्ध्यपर्याप्त रिगायुष्यमुमुच्छ्वासाष्टादशैकभागमेंदु व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः एंबी न्यायदिदं पेळल्पटुदु । अनंतरमेकेंद्रियादिसंज्ञिपंचेद्रिय१० पर्यंतमिई लब्ध्यपर्याप्तकजीवंगळोळु सर्वनिरंतरजन्ममरणकालप्रमाण पेळल्वडि पेळ्दपं। तिण्णिसया छत्तीसा छावट्ठिसहस्सगाणि मरणाणि । अंतोमुहूत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ॥१२३।। त्रिशतं षट्त्रिंशत् षट्षष्टिसहस्राणि मरणान्यंतर्मुहूर्त्तकाले तावत्काश्चैव क्षुद्रभवाः ॥ षट्त्रिंशत्रिशताभ्यधिकषट्षष्टिसहस्रमरणंगळंतर्मुहूर्त्तकालदोळु संभविसुववनिते क्षुद्रभवंगळुमप्पुवु । १५ क्षुद्रस्य सर्वनिकृष्टस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य भवाः क्षुद्रभवाः एंबी निरुक्तिसिद्धंगळप्प लब्ध्यपर्याप्तक अथ लब्ध्यपर्याप्तकस्वरूपं निरूपयति अपर्याप्तनामकर्मोदये सति एकेन्द्रियविकलचतुष्कसंज्ञिजीवाः स्व-स्वचतुःपञ्चषट्पर्याप्तीनं निष्ठापयन्ति । उच्छ्वासाष्टादशकभागमात्रे एवान्तर्मुहूर्ते म्रियन्ते ते जीवा लब्ध्यपर्याप्तका इत्युच्यन्ते । लब्ध्या स्वस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पन्ना लब्ध्यपर्याप्ता इति निरुक्तेः ॥१२२॥ अथैकेन्द्रियादिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तलब्ध्यपर्याप्तकजीवेषु सर्वनिरन्तरजन्ममरणकालप्रमाणमाह अन्तर्मुहूर्तकाले क्षुद्राणां लब्ध्यपर्याप्तानां मरणानि षट्त्रिंशताधिकषट्षष्टिसहस्राणि संभवन्ति । तथा तद्भवा अपि तावन्त एव ॥१२३॥ लब्ध्यपर्याप्तकका स्वरूप कहते हैं अपर्याप्तकनामकर्मका उदय होनेपर एकेन्द्रिय, चारों विकलेन्द्रिय और संज्ञी जीव २५ अपनी-अपनी चार, पाँच और छह पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं करते हैं । उच्छ्वासके अठारहवें भाग प्रमाण अन्तमुहूर्तमें ही वे मर जाते हैं। वे जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहे जाते हैं । लब्धि अर्थात् अपनी पर्याप्तिको पूर्ण करनेकी योग्यतासे अपर्याप्त अर्थात् अनिष्पन्न जीव लब्ध्यपर्याप्त है ऐसी निरुक्ति है ।।१२२॥ आगे एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें निरन्तर जन्म ३० और मरणके कालका प्रमाण कहते हैं अन्तर्मुहूर्तकालमें लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका मरण छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार होता है । तथा उनका जन्म भी उतनी ही बार होता है ।।१२३॥ विशेषार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक जीवके ८७१ उच्छवासोंसे हीन एक मुहूर्त काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कालमें छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस मरण होते हैं। उतने ही क्षुद्रभव हैं। १. मगलंतम्म । २. मलायुष्यमु। ३. मतमे मा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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