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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २५५ २३ । २१ । २१। २१। २१। २१। मिदुर्बु कूडि २२ । ५। ५ । ५। ५। ५ ४।४।४। ४।४।४ । ४।४।४।४।४।४।४।४।४ ४।४।४।४।४ युमंतर्मुहूर्तमेयक्कुमिल्लिगे संज्ञिपंचेद्रियपर्याप्तकनारं पर्याप्तिगळी क्रमविदं परिपूर्णगळप्पुवु । अनंतरं पर्याप्तिनिर्वृत्यपर्याप्ति कालविभागकालमं पेन्दपं: पज्जत्तस्स य उदये णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्तियपुण्णगो ताव ॥१२१।। पर्याप्तिनामकर्मण उदये निजनिजपर्याप्तिनिष्ठितो भवति । यावच्छरीरमपूर्ण निर्वृत्यपर्याप्तकस्तावत् ॥ पर्याप्रिनामकर्मदुदयमुंटागुत्तिरलेकेंद्रियविकलचतुष्कसंज्ञिजीवंगळ तंतम्म नाल्कैदु मूरु पर्याप्तिर्गाळद निष्ठितमप्पर। निष्पन्नशक्तिकरप्पुवु । यन्नवर मा जीवंगळ्गे शरीरपर्याप्तिनिष्पन्न- १० मागदन्नवरं समयोनशरीरपाप्तिकालांतर्मुहूर्तपण्यंत २५ निवृत्यपर्यातकरें दु पेळल्पहरु ॥ निवृत्याशरीरनिष्पत्याऽपर्याप्ता अपूर्णानिवृत्यपर्याप्ताः एंदितु निरुक्तिसिद्धरप्परु॥ मुहूर्तेनाधिकः २१ । २१ । २१। २१। २३। २१ । ४। ४ । ४।४।४।४।४।४।४।४।४।४।४।४। ४ । मिलितोऽप्यन्तर्मुहुर्तमात्रः २१ । ५ । ५ । ५ । ५ । ५। एताः षट् संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकानामनेन क्रमेण ॥ ४।४।४।४।४। पूर्णा भवन्ति ॥१२०॥ अथ पर्याप्तनित्यपर्याप्तकालविभागमाह पर्याप्तनामकर्मोदये सति एकेन्द्रियविकलचतुष्कसंज्ञिजीवाः निजनिजचतुःपञ्चषट्पर्याप्तिभिनिष्ठिताः निष्पन्नशक्तयो भवन्ति । ते च यावत् शरीरपर्याप्तया न निष्पन्नाः तावत् समयोनशरीरपर्याप्तिकालान्त- .. मुंहूर्तपर्यन्तं २।४ निर्वृत्त्यपर्याप्ता इत्युच्यन्ते । निर्वृत्या शरीरनिष्पत्या अपर्याप्ता अपूर्णा निर्वृत्यपर्याप्ता इति निर्वचनात् ।।१२१॥ संख्यातवाँ भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त उसीमें मिलानेपर मनःपर्याप्तिका काल होता है वह भी अन्तर्मुहूर्त ही है । ये छह पर्याप्तियाँ संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकके इसी क्रमसे पूर्ण होती हैं ।।१२०।। आगे पर्याप्त और निवृत्यपर्याप्तके कालका विभाग करते हैं पर्याप्तनामकर्मका उदय होनेपर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय चार और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव २५ अपनी-अपनी चार, पाँच और छह पर्याप्तियोंसे निष्ठित अर्थात् सम्पूर्ण शक्तियुक्त होते हैं। वे जबतक शरीर पर्याप्तिसे निष्पन्न नहीं होते अर्थात् जबतक उनको शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, तब तक निवृत्यपर्याप्त कहे जाते हैं । अर्थात् एक समय कम शरीरपर्याप्तिके काल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निवृत्यपर्याप्तका काल है। निर्वृत्ति अर्थात् शरीरपर्याप्तिकी निष्पत्तिसे अपर्याप्त अर्थात् अपूर्णको निर्वृत्यपर्याप्त कहते हैं,यह उसकी व्युत्पत्ति है ।।१२।। विशेषार्थ-शरीरपर्याप्तिकी निष्पत्तिके समयसे लेकर इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मनःपर्याप्तिकी निष्पत्ति नहीं होनेपर भी जीव पर्याप्तक ही कहा जाता है। १. म विकलत्रयसं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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