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________________ २५८ गो०जीवकाण्डे कन निरंतरक्षुद्रभवंगळेटु कूडि पंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतरक्षुद्रभवंगळिप्पत्तनाल्कु २४ । अनंतरमेकेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकन निरंतरक्षुद्रभव संख्ययोळु स्वामिभेदमनायिसि विभागिसिदपं । पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूलसुहुमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के बार खं छक्कं ।।१२५॥ पृथिव्युदकाग्निमारुतसाधारणस्थूलसूक्ष्मप्रत्येकाः। एतेष्वपूर्णेषु चैकस्मिन् द्वादश खं षटकं ॥ पृथिवीकायिक - अप्कायिक - तेजस्कायिक - वातकायिक साधारणवनस्पतिकायिकंगळोळु प्रत्येकं बादरसूक्ष्मभेदद्वयविभिन्नंगळोळं प्रत्येकवनस्पतिकायिकंगळोमितु पन्नों देडोळं द्वादशोत्तरषट्सहस्रंगनिरंतरं क्षुद्रभवंगप्रत्येकमप्पुर्वेदु पन्नोंदरिंदमेकेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकननिरंतरक्षुद्र भवंगळं ६६१३२ भागिसलोदोदक्क मुंपेळ्द बार खं छक्कं ६०१२ निरंतरक्षुद्रभवंगळप्पुवु। सामान्यलब्ध्यपर्याप्तकन सर्वनिरंतरक्षुद्रभवसंख्यातत्कालादिगळ्गे परिमाणनिर्णयनिमित्तमागि चतुर्द्धापवर्तने तोरल्पडुगुमदेते दोडे-वोदु क्षुद्रभवक्कत्तलानुमुच्छ्वासाष्टादशैकभागमात्रममक्कु मागल षट्त्रिंशत्रिशतोत्तरषट्षष्टिसहस्र ६६३३६ निरंतरक्षुद्रभवंगळ्गेनितु कालमक्कुदितु संपादिसुत्तिरलु प्रभ १ फ उ १ इभ ६६३३६ लब्धकालमुच्छ्वासंगळु ३६८५ १ इदिल्लि १८ पर्याप्तके चतुर्विशतिः २४ । तत्र तु मनुष्ये लब्ध्यपर्याप्तके अष्टौ ८, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तके अष्टौ ८, १५ संज्ञिपञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तके अष्टो ८ मिलित्वा पञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तके चतुर्विशतिर्भवन्ति ॥१२४॥ अथैकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकस्य निरन्तरक्षद्रभवसंख्यां स्वामिभेदानाश्रित्य विभजति पृथिव्यप्तेजोवायु-साधारणवनस्पतयः पञ्चापि प्रत्येकं बादरसूक्ष्मभेदेन दश । तथा प्रत्येकवनस्पतिश्चेत्येषु एकादशसु लब्ध्यपर्याप्तभेदेषु एकैकस्मिन् भेदे प्रत्येकं द्वादशोत्तरषट्सहस्री निरन्तरक्षुद्रभवा भवन्तीति एकादशभिः एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकस्य निरन्तरक्षुद्रभवेषु ६६१३२ भक्तेषु एकस्य प्रागुक्तं 'बार खे छक्कं' २० ६०१२ निरन्तरक्षद्रभवप्रमाणमागच्छति । उक्तसर्वनिरन्तरक्षद्रभवसंख्यां तत्कालादिप्रमाणं च निर्णतुं चतुर्धाप वर्तनं दर्श्यते । तद्यथा-यद्ये कक्षुद्रभवस्य उच्छ्वासाष्टादशैकभागकालः तदा षट्त्रिंशत्रिशतोत्तरषट्षष्टिसहस्र६६३३६ निरन्तरक्षद्रभवानां कियन्त उच्छवासाः ? इति संपाते सति प्र.,भ १ । फ. उ. कट । इ, भ ६६३३६ लब्ध्यपर्याप्तकमें चौबीस २४, उनमें भी मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ ८, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय - लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ ८, और संज्ञी पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकमें आठ ८ सब मिलकर चौबीस २५ होते हैं । इस प्रकार सब भवोंका ग्रहण करता है ।।१२४॥ आगे एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके निरन्तर क्षुद्रभवोंकी संख्याको स्वामिभेदसे विभाजित करते हैं पृथिवी, अप, तेज, वायु और साधारण वनस्पति, इन पाँचोंमें-से प्रत्येक बादर और सूक्ष्म होनेसे दस होते हैं। तथा प्रत्येक वनसति मिलाकर इन ग्यारह लब्ध्यपर्याप्तकोमें-से ३० एक-एक भेदमें छह हजार बारह निरन्तर क्षुद्रभव होते हैं । एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके निरन्तर क्षुद्रभव ६६१३२ में ग्यारहसे भाग देनेपर एक एकेन्द्रियके क्षुद्रभवोंका प्रमाण छह हजार बारह होता है। उक्त समस्त निरन्तर क्षुद्रभवसंख्या और उसके काल आदिके प्रमाणका निर्णय करनेके लिए चार प्रकारके अपवर्तनको दिखाते हैं। यदि एक क्षुद्रभवका काल उच्छवासका अठारहवाँ भाग है,तो छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस निरन्तर क्षुद्रभवोंका कितने उच्छ्वास ३५ १. म गल्मेंटु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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