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________________ २१० गो० जीवकाण्डे सर्षपमं कल्पिसि हाकिदोडदरोळेरडु सर्षपंगळापवितु प्रतिशलाकाकुंडमुं तुंबिदागळा पिदण शलाकाकुंडमुमनवस्थाकुंडमुंमरडुं तुंबिवंतु मूरुं कुंडंगळं तुंबिरला प्रतिशलाकाकुंड तुंबिद दु महाशलाका कंडोलों सर्षपमं बेरों दं मुन्निनंत कल्पिसि हाकि मत्ता अनवस्थाकुंडं नडदु शलाकाकुंड तंबुगुमा शलाकाकुंड बि बि प्रतिशलाकाकुंडं तंबुगुमा प्रतिशलाकुंडं तुंबि बि महाशलाकाकुंडमुं ५ बिदाग पिदण प्रतिशलाकाकुंडमुं शलाकाकुंडमुमनवस्थाकुंडमुं नाल्कुं तुंबिर्ण्यवंतु तुबिद नवस्थाकुंडम चरमानवस्थित कुंडमें बुदक्कुमा कुंडसर्षपंगळु परीतासंख्यात जघन्यराशि प्रमाणमप्पुदु ॥ इल्लि त्रैराशिक माड पडुगु । शलाका कुंडदोळो डु सर्षपमं हाइक्कुत्तिरलु आनुमोदन - वस्थाकुंडमक्कु । मागळु शलाकाकुंडदोळेकनवादिमात्रमं हैं कलिनितुमनवस्थाकुंडंगळप्पुव ते दोडे प्र १। फल १। इ १९= । मत्तं प्रतिशलाकाकुंडदोळों दु सर्षपनिक्कले त्तलानु मनवस्थाकंड १९ १९ १० गळिगे नवमात्रमागलागळा प्रतिशलाकाकुंंडदोळेगे नवमात्रसर्षपगळं प्रक्षेपिसुत्तिरळे नितुमनवस्थाकुंडमवेदोडे = १ । फल । आ १९ = इ । प्रति १९ = मत्तं महाशलाकेयोळो दु सर्षपक्के तदा महाशलाकाकुण्डे एकं सर्षपं निक्षिपेत् । अनेन क्रमेणैकनवादिघनमात्रेषु अनवस्थाकुण्डेषु गतेषु महाशलाकाfusafir तदा प्राक्तनानि प्रतिशलाकाशलाकानवस्थाख्यान्यपि कुण्डानि म्रियन्ते । तदात्र मच्चरममनवस्थाकुण्डं तत्र यावन्तः सर्षपास्तत्प्रमाणं रूपोनं चेत्तदोत्कृष्टसंख्यातं भवति तत्संदृष्टिः १५ संपूर्ण तदा जघन्य१५ परीतसिंख्यातं भवति तत्संदृष्टिः १६ अस्योपरि एकाद्यकोत्तरक्रमेण सर्वेषु मध्यपरीता संख्यातविकल्पेषु गतेषु यदा जधन्यपरीतासंख्यातं विरलयित्वा रूपं प्रति तदेव दत्त्वा परस्परगुणितलब्धमात्रं रूपोनं जायते तदा उत्कृष्ट परीता संख्यातं भवति । तत्संदृष्टिः २ संपूर्ण तदा जघन्ययुक्तासंख्यातं भवति । २ । इदमावलिसदृशं । अस्योपरि एकाद्येकोत्तरक्रमेण मध्यमान् युक्तासंख्यात विकल्पान् नीत्वा जघन्ययुक्तासंख्यातवर्गमात्रं रूपोनं तदा उत्कृष्टयुक्तासंख्यातं भवति ४ । सम्पूर्णं तदा जघन्यद्विकवारासंख्यातं भवति । ४ । अस्योपरि द्विरूपोन२० तरह एक नौ आदि अंकोंके घन प्रमाण अनवस्थाकुण्डों के होनेपर महाशलाका कुण्ड भी भर जाता है । महाशलाकाकुण्डके भरनेपर पहलेके प्रतिशलाका, शलाका और अनवस्थाकुण्ड भी भर जाते हैं । उस समय अन्तिम अनवस्थाकुण्डमें जितनी सरसों समाती है, उनके प्रमाणमें एक कम करनेपर उत्कृष्ट संख्यात होता है। उसकी संदृष्टि १५ है । और अन्तिम अनवस्थाकुण्डकी सम्पूर्ण सरसोंका जितना प्रमाण है, उतना ही जघन्य परीतासंख्यातका २५ प्रमाण है । उसकी संदृष्टि १६ है । जघन्य परीतासंख्यातके ऊपर एक-एक बढ़ते हुए क्रमसे एक कम उत्कृष्ट परीतासंख्यात पर्यन्त मध्यम परीतासंख्यात के विकल्प ( भेद ) होते हैं । अब जघन्य परीतासंख्यातका विरलन करके अर्थात् जघन्य परीता संख्यात प्रमाण एक-एक स्थापित करके प्रत्येक एकके अंकके ऊपर जघन्य परीता संख्यातको देकर सब परीतासंख्यातोंको परस्परमें गुणा करनेपर जघन्य युक्तासंख्यातका प्रमाण आता है । उसमें से एक ३० कम करनेपर उत्कृष्ट परीतासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासंख्यात और आवली समान हैं। अर्थात् एक आवली में जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण समय होते हैं। या इतने समय की आवृली है । जघन्य युक्तासंख्यातके ऊपर एक-एक बढ़ते हुए एक कम उत्कृष्ट युक्तासंख्यात पर्यन्त मध्ययुक्तासंख्यातके भेद होते हैं । जघन्य युक्तासंख्यातका वर्ग करनेपर जघन्य असंख्याता१. तु । २. मक्कलेत्तलानु । ३. हायिक्लेनि । Jain Education International g For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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