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गो. जीवकाण्डे
दो डयोलोर्मेयुत्कृष्ट संख्यातभक्तजधन्यावगाहनदोळोंदु प्रदेशमं कुंदिसि १५ दुदं जघन्याव
गाहनदोळ कूडुत्तिरलु १५
तब्बड्ढीए चरिमो तस्सुवरिं रूवसंजुदे पढमा ।
संखेज्जभाग उड्ढी उवरिमदो रूवपरिवड्ढी ॥१०५॥ तद्वृद्धेश्चरमस्तस्योपरि रूपसंयुते प्रथम। संख्यात भागवृद्धरुपय॑तो रूपपरिवृद्धिः ॥ तदवक्तव्यभागवृद्धिय चरमावगाहनस्थानमक्कु ज ज०००० ज मी अवक्तव्यभाग
वृद्धिस्थानविकल्पंगळेनितककुम दोडे आदी ज अंते ज सुद्धे ज वड्डिहिदे ज रूवसंजुदे
१६।१५।१
एकवारमुत्कृष्ट संख्यातभक्तजघन्यावगाहने एकप्रदेशोने ज तज्जघन्यावगाहनस्योपरि युते सति ज ।।१०४॥
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तदवक्तव्यभागवृद्धश्चरमावगाहनस्थानं स्यात् ज
ज ००० ज एते च अवक्तव्यभाग
१. वृद्धिस्थानविकल्पाः कति ? इति चेत् आदी ज अन्ते
ज
सुद्धे ज वड्ढिहिदे ज
१६।१५ १६।१५।१
प्रदेश बढ़नेपर अवक्तव्य भागवृद्धिके स्थानोंको लाँघनेपर जघन्य अवगाहनामें एक बार उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे,उसमें से एक घटाकर उसे जघन्य अवगाहना जोड़नेपर ।।१०४॥
उस अवक्तव्य भागवृद्धिका अन्तिम अवगाहन स्थान होता है। ये अवक्तव्य भाग१५ वृद्धिके स्थानोंके भेद कितने हैं ? यह जाननेके लिए पूर्वोक्त करणसूत्रके अनुसार अवक्तव्य
भागवृद्धिके आदिस्थानके प्रदेशप्रमाणको उसके अन्तिम स्थानके प्रदेशप्रमाणमें-से घटाकर शेषमें एकका भाग देकर और एक जोड़नेपर जो संख्या हो, उतने ही अवक्तव्य भागवृद्धिके स्थान हैं। अब अवक्तव्य वृद्धिकी उत्पत्ति अंकसंदृष्टि के द्वारा स्पष्ट करते हैं
जघन्य अवगाहना अड़तालीस सौ ४८००। इसके भागहारभूत परीतासंख्यातका २० प्रमाण सोलह १६। इससे जघन्य अवगाहनामें भाग देनेपर लब्ध तीन सौ ३००। इतनी
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