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________________ १७४ गो० जीवकाण्डे ६।८। २२ पल्यासंख्येयभागगुणितमपत्तित प ११॥ ८॥ ५। ८ । २२।१।९ मिती क्रदिदं स्वस्थान a a दोळं परस्थानदोळं बाददि बादरक्क पल्यासंख्येयभागगुणकारमक्कुमदु बादरपंचेंद्रियापर्याप्तजघन्यावगाहस्थानपर्यंतं पल्यासंख्येयभागगुणितक्रममागुत्तिरलु बादरपंचेंद्रियापर्याप्तजघन्यावगाहं ६।८।२२ गुणितापतित- ५८।८।५। ८ । २२ । १९ मिदं नोड मुंदण सूक्ष्मनिगोदपर्याप्तक जघन्याव a a aa ६ । ८ । २२ ५ पर्याप्तवातकायिकस्य जघन्यावगाहः पल्यासंख्येयभागगणितोऽपवर्तितः-१।१८। ८ । ५। ८ । २२ । । ९ a अतो बादरतेजस्कायिकापर्याप्तजवन्यावगाहः पल्यासंख्येयभागगणितोऽपवर्तितः६। ८ । २२ प । १७ । ८ । ५।८।२२।१।९। एवं पल्यासंख्येयभागगणितक्रमण अग्रे नवस्थानानि नीत्वा नवमो aa ६। ८ । २२ a बादरपञ्चेन्द्रियापर्याप्तजवन्यावगाहोऽयं । प । ८ । ८ । ५ । ८ । २२ । १ । ९ । अतः सूक्ष्मनिगोदपर्याप्तकजघ aa गुणाकार और भागहारमें समानता देख दोनोंका अपवर्तन करना। इससे सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस् १० कायिककी जघन्य अवगाहना आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित है। यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकारसे अपवर्तन करने पर आठबारकी जगह सात बार आवलीके असंख्यातवें भागका भागहार होता है। इससे सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिकका जघन्य अवगाहना स्थान आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित है। यहाँ भी पूर्ववत् अपवर्तन करना। इससे सूक्ष्म अपर्याप्त पृथिवीकायिकका. जघन्य अवगाहना स्थान आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित है। यहाँ भी १५ पूर्ववत् अपवर्तन करना। इस तरह यहाँ आवलीके असंख्यातवें भागका भागहार तो पाँच बार रहा अन्य सब गुणाकार' और भागहार जैसे पहले सूक्ष्म निगोदियाकी अवगाहनामें बतलाये थे, वैसे ही रहे। यहाँ तक तो सूक्ष्मसे सूक्ष्मका गुणाकार हुआ,अतः इसे स्वस्थान गुणाकार कहते हैं । आगे सूक्ष्मसे बादरका गुणाकार कहते हैं सो परस्थान गुणाकार जानना । इस सूक्ष्मसे सूक्ष्मका गुणाकाररूप स्वस्थानका उल्लंघन करके परस्थान भूत बादर २० अपर्याप्त,वायुकायिककी जघन्य अवगाहना सूक्ष्म पृथिवीकायिककी जघन्य अवगाहनासे पल्यके असंख्यात भाग गुणित है। पहले उन्नीस बार पल्यके असंख्यातवे भागका भागहार था, उसमें से एक बार कम करना । इससे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाका स्थान पल्यके असंख्यातवें भाग गुणा है । यहाँ भी पूर्ववत् अपवर्तन करके एक कम करना। इसी तरह पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणितके क्रमसे आगेके नौ स्थानोंको ले जानेपर नवम २५ स्थान बादर पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहनामें ग्यारह स्थानोंमें ग्यारह पल्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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