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________________ १६२ गो० जीवकाण्डे सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यय्पर्याप्तकन तद्भवदोळु ऋतुगतियिदं पुट्टिद तृतीयसमयदोळु धनांगुलासंख्यातैकभागमात्रप्रदेशावगाहमनुळशरीरं सर्वावगाहविकल्पंगळं नोडल्जघन्यमक्कुं । स्वयंभूरमणसमुद्रमध्यत्ति महामत्स्यदोळुत्कृष्टावगाहंगळेल्लमं नोडल्सर्वोत्कृष्टावगाहमनुळळ शरीर मक्कुमुत्पन्नतृतीयसमयदोळे सर्वजघन्यावगाहनमनळ्ळ शरोरम दितेक दोर्ड उत्पन्नप्रथमसमय५ दोळु निगोदजीवशरीरमायतचतुरस्रमक्कुं तद्वितीयसमयदोळ समचतुरस्रमक्कुं। तृतीयसमयदोलु मत्ते कोणापनयनदिंद वृत्तत्वदिदमा प्रथमद्वितीयसमयंगळे रडु मवगाहंगळं नोडलल्पीयस्त्वं संभविसुगुमें दितु तृतीयसमयदोळे सर्वजघन्यमप्प शरीरावगाहनमं पुटुगुं । विग्रहगतियोळु योगवृद्धिथुळ्ळदरिदं अवगाहवृद्धिसंभविसुगुमरदं ऋजुगत्युत्पन्नं गलेंदितु पेळल्पटुदु । सर्वजघन्यशरीरावगा हदोळु घनांगुलक्क भागहारंगळपल्यासंख्यातैकभागंगळेकानविंशतिसंख्याप्रमितंगळक्कुमावल्य१० संख्यातकभागंगळोभत्तु । रूपाधिकावल्यसंख्यातैकभागंगळ्द्वाविंशतिप्रमितंगळक्कुं। संख्यात सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य तद्भवे ऋजुगत्योत्पन्नस्य तृतीयसमये घनामुलासंख्यातैकभागमात्रप्रदेशावगाहविशिष्टशरीरं सर्वावगाह विकल्पेभ्यो जघन्यं भवति स्वयंभूरमणसमुद्र मध्यवर्तिमहामत्स्ये उत्कृष्टावगाहेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वोत्कृष्टावगाहविशिष्टं शरीरं भवति । ननूत्पन्नतृतीयसमये एव सर्वजघन्यावगाहनं कथं संभवेत् ? इति चेत् तत्प्रथमसमये निगोदजीवशरीरस्यायतचतुरस्रत्वात् द्वितीयसमये समचतुरस्रत्वात् तृतीयसमये कोणापनयनेन वृत्तत्वात् तदैव तदवगाहनस्याल्पत्वसंभवात् । तर्हि ऋजुगत्योत्पन्नस्यैव कथमुक्तं विग्रहगतौ योगवृद्धियुक्तत्वेन तदवगाहवृद्धिप्रसङ्गात् । तत्सर्वजघन्यावगाहे घनाङ्गुलस्य भागहा राः पल्यासंख्या जो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव उस भवमें ऋजुगतिसे उत्पन्न हुआ है, उसका तीसरे समयमें घनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र प्रदेशोंकी अवगाहनासे विशिष्ट शरीर समस्त अवगाहनाके विकल्पोंसे जघन्य होता है। स्वयम्भूरमण समुद्रके मध्यवर्ती २० महामत्स्यके समस्त उत्कृष्ट अवगाहनाओंसे सर्वोत्कृष्ट अवगाहनासे विशिष्ट शरीर होता है । शंका-उत्पन्न होनेके तीसरे समयमें ही सबसे जघन्य अवगाहना कैसे होती है ? समाधान-जन्म लेनेके प्रथम समयमें निगोदिया जीवका शरीर आयतचतुरस्र अर्थात् लम्बा अधिक चौड़ा कम होता है। दूसरे समयमें समचतुरस्र अर्थात् समान लम्बा चौड़ा चौकोर होता है। तीसरे समय में कोने दूर हो जानेसे गोल आकार होता है। उसी २५ समय उसकी अवगाहनाका प्रमाण अल्प होता है। शंका-तो ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवके ही जघन्य अवगाहना क्यों कही ? समाधान-विग्रहगतिमें योगकी वृद्धिसे युक्त होनेसे उसकी अवगाहनामें वृद्धिका प्रसंग आता है। जघन्य अवगाहनाका प्रमाण लानेके लिए घनांगुलके भागहार उन्नीस पल्यके ३० असंख्यातवें भाग, नौ आवलीका असंख्यातवाँ भाग, बाईस एक अधिक आवलीका असंख्यातवाँ भाग, और नौसंख्यात है अर्थात् घनांगुलमें इतनी-इतनी बार इन राशियोंसे भाग देना है । और गुणकार बाईस आवलीके असंख्यातवें भाग हैं अर्थात् बाईस बार आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करना है। १. म कापल्यसं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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