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________________ १६३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका रूपवारगळोभत्तु । मत्तं गुणकारंगळावल्यसंख्यातैकभागमात्रंगद्वाविंशतिप्रमितंगळक्कुमदक ६।८।२२ संदृष्टि ५ १९।८८।२२।१।९ अनंतमिद्रियादिदमुत्कृष्टावगाहंगळ प्रमाण तत्स्वामिनि द्दश निमित्तमी सूत्रमं पेळदपरु साहिय सहस्समेक्कं बारं कोसूणमेक्कमेकं च । जोयणसहस्सदीहं पम्मे वियले महामच्छे ॥१५॥ साधिकसहस्रमेकं द्वादशकोशोनमेकं च । योजनसहस्रदैयं पद्म विकले महामत्स्ये ॥ एकेंद्वियंगळोळु स्वयंभूरमणद्वीपमध्यत्तिस्वयंप्रभाचलापरभागस्थितक्षेत्रोन्नतपद्मदोळु साधिकसहस्रयोजनायाममुमेकयोजनव्यासमुमुत्कृष्टागाहमक्कु मिदक्के "वासो तिगुणो परिही" एंदु व्यासमुं १ । त्रिगुणं माडलु १।३। परिधियक्कुं “व्यासचतुर्थाहतस्तु क्षेत्रफल' मेंदु १० ११३३१ व्यासचतुर्थांशदिदं ४ परिधियं गुणिसिदोडे क्षेत्रफलमक्कुं ४ क्षेत्रफलं वेदगुणं खातफलं तैकागा एकानविंशतिः । आवल्यसंख्यातकभागा नव । रूपाधिकावल्यसंख्यातैकभागा द्वाविंशतिः संख्याता नव । गुणकारास्तु आवल्यसंख्यातैकभागा द्वाविंशतिः । संदष्टिः ६।८।२२ -a प।१९।८।९।८।२२।१९ a ॥९४।। अर्थेन्द्रियाश्रयणोत्कृष्टावगाहानां प्रमाणं तत्स्वामिनश्च निर्दिशति एकेन्द्रियेप स्वयंभरमणद्वीपमध्यवर्तिस्वयंप्रभाचलापरभागस्थितक्षेत्रोत्पन्नपद्म साधिकसहस्रयोजनायामैकयोजनव्यासोत्कृष्टावगाहो भवति अस्य च व्यासः (यो०) १। त्रिगण : १ । ३ परिधिः । अयं च व्यास विशेषार्थ-इन सब भागहारोंको परस्परमें गुणा करनेसे तो सब भागहारोंका प्रमाण २० आ जायेगा। और बाईस जगह आवलीके असंख्यातवें भागोंको रखकर परस्पर गुणा करनेसे गुणकारका प्रमाण आ जायेगा। घनांगुलमें भागहारका भाग देकर और गुणकारसे गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे उतना ही जघन्य अवगाहनाके प्रदेशोंका परिमाण जानना ॥९४।। आगे इन्द्रियोंके आश्रयसे उत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाण और उसके स्वामियोंका कथन करते हैं २५ एकेन्द्रियोंमें स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्यवर्ती स्वयंप्रभाचलके अपर भागमें जो कर्मभूमिरूप क्षेत्र है, उस क्षेत्रमें उत्पन्न हुए कमलमें कुछ अधिक एक हजार योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा उत्कृष्ट अवगाह है अर्थात् वह कमल इतना लम्बा-चौड़ा है। उसका क्षेत्रफल कहते हैं कमल गोलाकार है। और गोलाकारका क्षेत्रफल लानेके लिए व्याससे तीन गुनी ३० परिधि होती है। परिधिको व्यासके चतुर्थांशसे गुणा करनेपर प्रतररूप क्षेत्रफल होता है। और उसे ऊँचाईसे गुणा करनेपर घनक्षेत्रफल या खातफल होता है। वही यहाँ इष्ट है। सो कमलका व्यास एक योजन, उसको तीनसे गुणा करनेपर परिधि तीन योजन होती है। १. म णसमुद्रम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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