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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१५५ कुम्मुण्णयजोणीये तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य ।
रामा वि य जायते सेसाए सेसगजणो दु ॥८२॥ कूर्मोन्नतयोनौ तोत्थंकरा द्विविधचक्रवत्तिनश्च । रामा अपि च जायन्ते शेषे शेषकजनस्तु॥
कूर्मोन्नतयोनियोळु तीर्थकररु सकलचक्रवत्तिगळं अर्द्धचक्रवत्तिगळं प्रतिवासुदेवर्कळु बलदेवरुगळं पुटुवरु । अपि शब्ददिंदमुमितरजनंगळु पुटुवरु। शेषवंशपत्रयोनियो मिक्क- ५ जनंगळे पुटुवर, तीर्थकरादिगळ्पुट्टर ॥ अनंतरं जन्मभेद निर्देशपूर्वकमागि गुणयोनिनिर्देशार्थ पेळ्दपरु।
जम्मं खलु संमुच्छणगभुववादा दु होदि तज्जोणी ।
सच्चित्तसीदसंवुडसेदरमिस्सा य पत्तेयं ॥८३॥ जन्म खलु संमूर्छनगर्भोपपादास्तु भवन्ति तद्योनयः । सच्चित्तशीतसंवृतसेतरमिश्राश्च १० प्रत्येकम् ॥
सन्मूर्छनगर्भोपपादंगळु संसारिजोवंगळ्गे जन्मभेदंगळप्पुवु। सं समन्तान्मच्छेनं जायमान
कर्मोन्नतयोनी तीर्थङ्कराः सकलचक्रवर्तिनः अर्धचक्रवर्तिनः प्रतिवासुदेवा बलदेवाश्चोत्पद्यन्ते अपिशब्दानेतरजनाः। शेषवंशपत्रयोनी शेषजना एवोत्पद्यन्ते न तीर्थङ्करादयः ॥८२॥ अथ जन्मभेदनिर्देशपूर्वकं गुणयोनीनिदिशति
___ सम्मुर्छनगर्भोपपादाः संसारिजीवानां जन्मभेदा भवन्ति । सं समन्तात्, मूर्छनं जायमानजीवानुग्राहकाणां जोवोपकारकाणां शरीराकारपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धानां समुच्छ्रयणं सम्मूर्छन । जायमानजीवेन शुक्रशोणित____ शंखावर्तयोनि, कूर्मोन्नतयोनि, वंशपत्रयोनि इस प्रकार तीन आकारयोनियाँ होती हैं। योनि अर्थात् मिश्ररूप होना। जिसमें जीव औदारिक आदि नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलोंके साथ सम्बद्ध होता है,वह योनि अर्थात् जीवकी उत्पत्तिका स्थान है। इन तीन प्रकारकी २० योनियों में-से शंखावर्तयोनिमें गर्भ नियमसे नहीं ठहरता अथवा रहे,तो नष्ट हो जाता है। चक्रवर्तीकी महिषी स्त्रीरत्न आदि किन्हीं स्त्रियोंमें इस प्रकारकी योनि होती है ।।८।।
कूर्मोन्नतयोनिमें तीर्थंकर, सकलचक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती, प्रतिवासुदेव, और बलदेव उत्पन्न होते हैं। अपि शब्दसे अन्य जन इसमें पैदा नहीं होते। शेष वंशपत्रयोनिमें शेष जन ही पैदा होते हैं, तीर्थकर आदि पैदा नहीं होते ।।८२॥ ____ आगे जन्मके भेद कहते हुए गुणयोनिका कथन करते हैं
सम्मुर्छन, गर्भ और उपपाद ये संसारी जीवोंके जन्मके भेद हैं। 'सं' अर्थात् समस्त रूपसे 'मूर्छन' अर्थात् उत्पन्न होनेवाले जीवके उपकारी शरीराकार रूपसे परिणमने योग्य पुद्गल स्कन्धों के स्वयं एकत्र होनेको सम्मूर्छन कहते हैं। उत्पन्न होनेवाले जीवके द्वारा रज और वीर्यरूप पिण्डका 'गरण' अर्थात् शरीररूपसे ग्रहण करना गर्भ है। उपपादन अर्थात् ३० संपुट शय्या, उष्ट्र आदि मुखके आकारवाले उत्पत्तिस्थानोंमें लघु अन्तर्मुहूत कालमें ही जीवका उत्पन्न होना उपपाद है।
विशेषार्थ-संसारी जीवोंके जन्मका अर्थ है-पूर्वभवके शरीरको छोड़कर उत्तरभवके शरीरको ग्रहण करना। यद्यपि परमार्थसे तो विग्रहगतिके प्रथम समयमें ही उत्तरभवकी
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