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________________ ५ गर्भः॥" १५४ गो० जीवकाण्डे अनंतरं योनिप्ररूपर्णयोळ्मुन्नमाकारयोनिनिर्देशात्यं गाथाद्वयमं पेळ्दपरु । संखावत्तयजोणी कुम्मुण्णयवंसपत्तजोणी य । तत्थ य संखावत्ते णियमाद विवज्जदे गब्भो ॥८१॥ शंखावर्तकयोनिः कूर्मोन्नतयोनिवंशपत्रयोनिश्च । तत्र च शंखावर्ते नियमाद्विवय॑ते शंखावर्तयोनियं कूर्मोन्नतयोनियु वंशपत्रयोनियुदिताकारयोनि त्रिविधमक्कु। यौति मिश्रीभवत्यौदारिकादिनोकर्मवर्गणापुद्गलैस्सह संबध्यते जीवो यस्यां सा योनिः यदितु जीवोत्पत्तिस्थानक्क योनित्वं निरुक्तिसिद्धमन्ता प्रिकारमप्प योनिगळोळगे शंखावर्तयोनियोल गर्भ नियमदिदं विज्जिसल्पडुगुं विपद्यते विनश्यते दितु मेणन्वयं माडल्पडुवुदु ॥ तत्सम्मूछिमेषु पर्याप्तनिर्वृत्त्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्तभेदादष्टादश । उत्कृष्टमध्यमजघन्यभोगभूमीनां संज्ञिस्थलचरखचराविति षट्सु पर्याप्तनिवृत्त्यपर्याप्तभेदावादश । मनुष्येषु आर्यखण्डजे संमूछिमे लब्ध्यपर्याप्त एकः । तद्गर्भजे म्लेच्छखण्डजे उत्कृष्टमध्यमजघन्यभोगभूमिजेषु कुभोगभूमिजे एवं षट्सु, तथा दशविधभावनाष्टविधव्यन्तरपञ्चविधज्योतिष्कपटलापेक्षत्रिषष्टिविधवैमानिकभेदात् षडशीतिसुरेषु प्रस्तारापेक्षयकान्न पञ्चाशद्विधनारकेषु च पर्याप्तनिवृत्त्यपर्याप्तभेदात् द्वयशीत्याद्विशतं मिलित्वा सर्वे षडधिकचतुःशती जीवसमासा भवन्ति ॥१॥२॥३॥ इति जीवसमासानां स्थानाधिकारः समाप्तः । अथ योनिप्ररूपणायाः प्रथममाकारयोनिभेदानाह शंखावतंयोनिः कुर्मोन्नतयोनिः वंशपत्रयोनिश्चेति आकारयोनिस्त्रिविधा भवति । यौति मिश्रीभवति औदारिकादिनोकर्मवर्गणा पुद्गलैः सह संबद्धयते जीवो यस्यां सा योनिः-जीवोत्पत्तिस्थानं । तत्त्रिविधयोनिष शंखावर्तयोनौ गर्भो नियमेन विवय॑ते विपद्यते विनश्यति वा ॥८१॥ दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन विकलेन्द्रिय हैं । इन एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय सम्बन्धी २० २७ भेदों में पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकके भेदसे इक्यासी ८१ होते हैं। पंचेन्द्रियोंमें कर्मभूमिज तिर्यंच संज्ञी और असंज्ञीके भेदसे युक्त जलचर, थलचर और नभचर ये छहों गर्भज पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्तके भेदसे बारह होते हैं। और ये सम्मूर्छन पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे अठारह होते हैं। उत्कृष्टभोगभूमि, मध्यम भोगभूमि और जघन्य भोगभूमिके तिर्यंच संज्ञी ही होते हैं तथा थलचर और नभचर होते हैं। इन २५ छहके पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्तके भेदसे बारह होते हैं। मनुष्योंमें आर्यखण्डमें जन्मे सम्मूर्छन जन्मवालोंमें लब्ध्यपर्याप्तकरूप एक स्थान होता है। आर्यखण्डमें उत्पन्न गर्भज मनुष्यों में तथा म्लेच्छ खण्ड में, उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भोगभूमि तथा कुभोगभूमिमें जन्मे मनुष्य गर्भज ही होते हैं। इस तरह ये छह प्रकारके मनुष्य हुए। तथा दश प्रकारके भवनवासी, आठ प्रकारके व्यन्तर, पाँच प्रकारके ज्योतिष्क, पटलोंकी अपेक्षा तेरसठ प्रकारके वैमानिक इस तरह ये सब (१०+ ८+५+ ६३= ८६) छियासी प्रकारके देव हुए। प्रस्तारोंकी अपेक्षा उनचास प्रकारके नारकी, ये सब मिलकर (६+ ८६+४९ = १४१) एक सौ इकतालीस हुए। ये सब पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्तके भेदसे दो सौ बारह होते हैं। इनमें पूर्वके सब भेद एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके इक्यासी, पंचेन्द्रिय तिर्यचके बयालीस, सम्मूर्छन मनुष्यका एक, गर्भज मनुष्य देव नारकियोंके दो सौ बयासी मिलकर चार सौ छह जीवसमास होते हैं। इस प्रकार जीवसमासोंका स्थानाधिकार समाप्त हुआ। आगे योनिप्ररूपणामें पहले 17 आकारयोनिके भेद कहते हैं ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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