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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १५३ इल्लि जीवविवयि स्थावरंगळ जीवसमासंगळ्नाल्वत्तरडु ४२ । तिय्यंचज पंचेंद्रियंगळ जीवसमासंगळ्मवत्तनाल्कु ३४ । विकलत्रयंगळोळो भत्तु ९ जीवसमासंगळु । देवरोळु जीवसमासंगळे रडु २। नारकरोळु जीवसमासगळेरडु २। मनुष्यरोळु वोभत्तु ९। जीवसमासंगलिवेल्लमुं कूडि तोभतेंटु जोवसमासंगळप्पुवु । इंतु पेळल्पट्ट जीवसमासस्थानंगळु संसारिजीवसंबंधिगळेयप्पुवु। मुक्तात्मसंबंधिगळल्लेके दोर्ड विशुद्धचैतन्यनिष्ठज्ञानदर्शनोपयोगयुक्तरोळु त्रसस्थावरादिभेदगळिल्लेते दोडे "संसारिणः सस्थावराः" एंबो सूत्रप्रमाणदत्तणिदं । इंतु जोवसमासंगळ्गे स्थानाधिकारंतिदुंदु॥ देवानां द्वौ २, नारकाणां द्वौ, २, मनुष्याणां नव ९ । सर्वाणि मिलित्वा अष्टानवतिः ९८ । अमूनि संसारिणामेव न मुक्तानां विशुद्ध चैतन्यनिष्ठज्ञानदर्शनोपयोगयुक्तत्वेन तेषां सस्थावरभेदाभावात् संसारिणस्त्रसस्थावरा इति १० सूत्रसद्भावात् ।।७९ । ८०।। अयोक्तेभ्यो विशेषजीवसमासकथकमपराचार्योक्तं गाथासूत्रत्रयमाह सुद्दखरकुजलतेवा णिच्चचदुग्गदिणिगोदथूलिदरा । पदिद्रिदरपञ्चपत्तियवियलतिपुण्णा अपुण्णदुगा ॥१॥ इगिविगले इगिसीदी असण्णिसण्णिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे सम्मुच्छे दुतिगतिभोगथलखेचरे दो दो ॥२॥ अज्जसमुच्छिगिगब्भे मलेच्छभोगतियकुणरछपणत्तीससये । सुरणिरये दो दो इदि जीवसमासा ह छहियचारिसयं ॥३॥ मृदादिरूपपृथ्वीकायिकः पाषाणादिरूपखर पृथ्वीकायिकः अप्कायिकः तेजस्कायिकः वायुकायिकः नित्यनिगोदः इतरनिगोदः परनामचतुर्गतिनिगोदश्चेति सप्तापि स्थूलसूक्ष्मभेदाच्चतुर्दश । तृणं वल्ली गुल्मः वृक्षः मलं चेति पञ्चापि प्रत्येकवनस्पतयो निगोदशरीरैः प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितभेदाइश । द्वीन्द्रियस्त्रीन्द्रियश्चतुरिन्द्रियश्चेति विकलेन्द्रियास्त्रयः । एतेषु सप्तविंशत्येकेन्द्रियविकलेन्द्रियभेदेषु पर्याप्तनिवृत्त्यपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्तभेदादेकाशीति. । पञ्चेन्द्रियेषु कर्मभूम्यसंज्ञिसंज्ञिभेदजलचरस्थलचरखचरेषु षट्स्वपि गर्भजेषु पर्याप्तनिर्वृत्त्यपर्याप्तभेदाद् द्वादश । स्थान ९८ होते हैं; र.ह गाथा सूत्रका तात्पर्य है। पृथक्-पृथक् विवक्षा करनेपर स्थावरोंके बयालीस ४२, विकलेन्द्रियोंके नौ ९, तियच पंचेन्द्रियोंके चौंतीस ३४, देवोंके दो २, नारकियोंके दो २ और मनुष्योंके नौ ९. सब मिलकर अदानबे ९८ होते हैं। ये जीवसमासम्थ सस्थान संसारी २५ जीवोंके ही होते हैं, मुक्त जीवोंके नहीं होते। क्योंकि मुक्त जीव विशुद्ध चैतन्यनिष्ठ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगसे युक्त होते हैं। उनके स-स्थावर भेद नहीं हैं । तत्त्वार्थसूत्रमें संसारी जीवोंके ही त्रस-स्थावर भेद कहे हैं ॥७९-८०॥ आगे उक्त जीवसमासके भेदोंसे विशेष कथन करनेवाले अन्य आचार्योंके द्वारा कहे हुए तीन गाथासूत्रोंको कहते हैं मिट्टी आदि रूप शुद्ध पृथ्वीकायिक, पाषाण आदि रूप खर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद, इतरनिगोद या चतुर्गति निगोद,ये सातों भी स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे चौदह होते हैं। तृण, वल्ली, गुल्म, वृक्ष और मूल ये पाँचों ही प्रत्येक वनस्पति निगोद शरीरोंसे प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित होनेके भेदसे दस हैं। १. अथ प्रकारान्तरेण जीवसमासस्थानानि वक्तुमुक्तं गाथात्रयम् । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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