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________________ १५६ गो० जीवकाण्डे जीवानुग्राहकजीवोपकारकशरीराकारपरिणमनेन पुद्गलस्कंधानां समुच्छ्यणं समर्छन । जायमानजोवेन शुक्लशोणितरूपस्य पिंडस्य गरणं शरीरतयोपादानं गर्भः। उपपादनं संपुटशय्योष्टकादिषु लघुनांतर्महर्तेनैव जीवस्य जननमुपपादः। एंदितु निरुक्तिसिद्धंगळप्पवरयोनिगळ्मत्त सच्चित्तशीतसंवृतंगळु सेतरंगळं मिश्रंगळुमेंदु नवविधमप्पुवुदुं। सन्मर्छनादिगळगे प्रत्येक यथासंभवमागि संभविसुवुवु । चित्तेन चेतनेन सह वत्तंत इति सचित्ताः। प्राण्यंतरप्रदेशपरिगृहीतपुद्गलस्कंधा इत्यर्थः । तद्विपरीता अचित्ताः। तदुभयात्मकाः पुद्गला मिश्राः । प्रादुर्भूतशीतस्पर्शाः पुद्गलाः शोताः । अभिव्यक्तोष्णस्पर्शाः पुद्गला उष्णाः। तदुभयात्मकाः पुद्गलाः मिश्राः । दुरुपलक्ष्यो गुप्ताकारपुद्गलस्कंधः संवृतः। प्रकटाकार उपलक्षणीयः पुद्गलस्कंधो विवृतः। तदुभयात्मको मिश्रः ॥ अनंतरं सन्मूच्र्छनादिगळ्गे स्वामिनिर्देशमं माडिदपरु । रूपपिण्डस्य गरणं-शरीरतया उपादानं गर्भः। उपपादनं संपुटशय्योष्ट्र मुखाकारादिषु लघुनान्तर्मुहूर्तनैव जीवस्य जननं उपपादः । इति निरुक्तिसिद्धसंमछिमादिभिस्तद्योनयः जीवशरीरग्रहणाधाराः यथासंभवं सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राश्चेति नवविधा भवन्ति । तासु संमूर्छनादय एव प्रत्येकं यथासंभवं संभवन्ति । चित्तेन चेतनेन सह वर्तते इति सचित्ताः प्राण्यन्तःप्रदेशपरिगृहीतपुद्गलस्कन्धाः इत्यर्थः । तद्विपरीता अचित्ताः । तदुभयात्मका मिश्राः । प्रादुर्भूतशीतस्पर्शाः पुद्गलाः शीताः। अभिव्यक्तोष्णस्पर्शाः पुद्गलाः उष्णाः । तदुभयात्मकाः पुद्गला मिश्राः। दुरुपलक्ष्यो गुप्ताकारपुद्गलस्कन्धः संवृतः। प्रकटाकार उपलक्षणीयः पुद्गलस्कन्धो विवृतः । तदुभयात्मकः पुद्गलस्कन्धो मिश्रः ।।८३।। अथ संमूर्छनादीनां स्वामिनिर्देशं करोतिप्रथम पर्याय प्रकट होनेरूप जन्म हो जाता है । क्योंकि पूर्वपर्यायका विनाश और उत्तरपर्यायका उत्पाद एक ही कालमें होता है; तथापि सम्मूछन आदि रूपसे पुद्गल पिण्डका ग्रहण उस प्रथम पर्यायमें नहीं होता। इसलिए उसके समीप शरीरग्रहणके प्रथम समयमें पर्यायका उत्पाद ही जन्मके समीप होनेसे उपचारसे जन्म कहा जाता है। अथवा ऋजुगतिकी अपेक्षा उत्तरभवके प्रथम समयमें ही सम्मर्छन आदि रूपसे शरीरग्रहणसे विशिष्ट उसकी प्रथम पर्यायका उत्पाद और पूर्वभवकी चरम पर्यायका विनाश एक साथ होता है, इसलिए जन्मका लक्षण मुख्य ही है। २५ इस प्रकार जीवके शरीरग्रहणके आधाररूप योनियाँ यथासम्भव सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, और सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतविवृतके भेदसे नौ प्रकारकी होती हैं। उनमें सम्मूर्च्छन आदि ही प्रत्येक यथायोग्य उत्पन्न होते हैं। चित्त अर्थात् चेतनके साथ जो रहें वे सचित्त हैं अर्थात् प्राणीके अन्तःप्रदेश द्वारा परिगृहीत पुद्गल-स्कन्ध उसका अर्थ है। उससे विपरीतको अचित्त कहते हैं । उभयात्मकको मिश्र कहते हैं। जिन पुद्गलोंमें ३० शीतस्पर्श प्रकट है, वे शीत हैं। जिन पुद्गलोंमें उष्णस्पर्श प्रकट है,वे उष्ण हैं। उभयरूप पुद्गल मिश्र हैं। जो पुद्गल-स्कन्ध देखने में नहीं आता, जिसका आकार गुप्त है,वह संवृत है। जो पुद्गल-स्कन्ध प्रकट आकारको लिये है, देखनेमें आता है,वह विवृत्त है। उभयात्मक पुद्गलस्कन्ध मिश्र है ॥८॥ आगे सम्मूर्छन आदि जन्मोंके स्वामी बतलाते हैं २० ३५ १. ब°ष्ट्रादिमुखाकारयोर्ल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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