SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४७ १४७ .. . कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ठाणेहि वि जोणीहि वि देहोगाहणकुलाण भेदेहि । जीवसमासा सव्वे परूविदव्वा जहाकमसो ॥७४।। स्थानैरपि योनिभिरपि देहावगाहनकुलानां भदैर्जीवसमासा सर्व प्ररूपयितव्याः यथा क्रमशः॥ स्थानंगाळदम योनिळिदम देहावगाहनंगाळदमुं कुलंगळ भेदंगळि दमुल्ला जीवसमासंगळु ५ यथाक्रमदिदं प्रवचनपरिपाटयनतिक्रमदिदं प्ररूपयितव्यंगळक्कुं॥ अनंतरं यथोदेशस्तथा निर्देशः एंबो न्यायदिदं प्रथमोद्दिष्टजीवसमासस्थानाधिकारद प्ररूपणार्थमी गा पेकदपं। सामण्ण जीव तसथावरेसु इगिवियलसयल चरिमदुगे । इंदियकाये चरिमस्स य दुतिचदुपणगभेदजुदे ॥७५।। सामान्यजीवस्त्रसस्थावरयोरेक विकल सकले चरमढिके इंद्रिये कार्य चरमस्य च द्वित्रिचतुःपंचभेदयुते ॥ एंदितल्लियुपयोगलक्षणमनुळ्ळ सामान्यजोवनाळु द्रव्याथिकनयविषयमागि माडल्पडुत्तिरलांदु जीवसमासस्थानमक्कुं। . संग्रहनयगृहीतार्थभेदकव्यवहारनयविवक्षयाळ संसारिजीवक्के प्रथमभेदंगळप्प सस्थावरंगळे दंगो करिसल्पट्ट वेरडु जीवसमासस्थानंगळक्कुं। मत्तमन्यप्रकारदिदं व्यवहारविवक्षयोळे- १५ केंद्रिय-विकलेंद्रिय-सकलेंद्रियस्वरूपंगळप्प मूरुजीवभेदंगळोळधिकृतंगळ् मुरुजीवसमासस्थानगळप्पुवितु मुंदळेडयोळ प्रकारांतरं गळिदं व्यवहारनयविक्षयरियल्पडुगु मदत दोडे-एकेंद्रियविकळेंद्रियंगळ कडेय सकलेंद्रियक्कसंज्ञि संज्ञिभेदद्वयमागुत्तिरलु नाल्कु जीवसमासस्थानंगळप्पुंव स्थानरपि योनिभिरपि देहावगाहनैरपि कुलानां भेदैरपि सर्वे ते जीवसमासाः, यथाक्रम-प्रवचनपरिपाट्यनतिक्रमेण प्ररूपयितव्या भवन्ति ॥७४॥ अथ यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायेन प्रथमोद्दिष्टजीवसमास- २० स्थानाधिकारं गाथाचतुष्टयेनाह तत्रोपयोगलक्षणसामान्यजीवे द्रव्याथिकनयेन विषयीकृते जीवसमासस्थानमेकं, संग्रहनयगृहीतार्थभेदकव्यवहारनयविवक्षायां संसारिजीवस्य प्रथमभेदी त्रसस्थावरावधिकृतौ इति जीवसमासस्थाने द्वे । पुनरन्यप्रकारेण व्यवहारनयविवक्षायां एकेन्द्रियविकलेन्द्रियजीवानधिकृत्य जीवसमासस्थानानि त्रीणि । एवमग्रेऽपि सर्वत्र स्थानोंके द्वारा, योनियोंके द्वारा, शरीरको अवगाहनाके द्वारा और कुलोंके भेदोंके २५ द्वारा वे सब ही जीवसमास आगमकी परिपाटीका उल्लंघन न करके प्ररूपण करनेके योग्य हैं ।।७४॥ आगे 'उद्देशके अनुसार निर्देश होता है' इस न्यायके अनुसार प्रथम कहे जीवसमास स्थानाधिकारको चार गाथाओंसे कहते है द्रव्यार्थिक नयसे उपयोग लक्षणसे युक्त सामान्य जीवको ग्रहण करनेपर जीव समास- ३० का स्थान एक है। संग्रहनयसे गृहीत अर्थका भेट करनेवाले व्यवहारनयकी विवक्षासे संसारी जीवके प्रथम दो भेद त्रस और स्थावर अधिकृत होनेसे जीवसमासके स्थान दो हैं। पुनः अन्य प्रकारसे व्यवहारनयकी विवक्षा होनेपर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीवोंको अधिकृत करके जीवसमासके स्थान तीन हैं। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र प्रका१. म प्पु वुमहंगे। ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy