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________________ गो० जीवकाण्डे तदनंतरं विस्तरजीवसमासप्ररूपणार्थमी गाथासूत्रमं पेदपरु । भ्रू आउ तेउ वाऊ णिच्चचदुग्गदिणिगोदथूलिदरा । पत्तेयपदिट्ठिदरा तस पण पुण्णा अपुण्णदुगा ||७३॥ भू अप्तेजोवायवो नित्यचतुग्र्गतिनिगोदस्थूलेतराः । प्रत्येक प्रतिष्ठितेतरौ त्रसपञ्चपूर्णा५ पूर्णद्विकाः ॥ १४६ भूकायिकाकायिक-तेजस्कायिक-वायुकायिकंगळ वनस्पतिकायिकंगळोळु नित्यनिगोदसाधारणचतुर्गति निगोदसाधारणमेदितियारु जीवभेदंगलगे प्रत्येकं बादर सूक्ष्म विकल्पदिदं द्वादशभेदंगळप्पुवु । प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिकक्के प्रतिष्ठिताऽप्रतिष्ठितभेदद मेरडु भेदंगळवु । द्वद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियमे बी विकलेद्रियक्के मूरु भेदंगळं पंचेंद्रियवकसंज्ञिसंज्ञिपंचेंद्रियभेददिंद१० मेरडु भेदंगळवु । इंतु त्रक्कै भेदंगळ पुवितेल्लमं कूड़ियों दुगुंदिदिप्पत्तु जीवसमासंगळवु । इक्केल्लं प्रत्येकं पर्याप्तकं निर्वृत्यपर्याप्तकं लब्ध्यपर्याप्तकर्म दितु मूरु विकल्पमुदरिदं मूरिदं गुणियिसिदोर्ड विस्तदिदं जीवसमासंगळु सप्तपंचाशत् बेधं (भेदं ) गळवु ॥५७॥ तदनंतरमी सप्तपंचाशज्जीवभेदंगळगवांतर विशेषप्रदर्शनात्थं स्थानाद्यधिकारचतुष्टयमं पेदपं । १५ भवन्ति ॥ ७२ ॥ अथ विस्तरजीवसमासान् प्ररूपयति भूकायिकाकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकाः वनस्पतिकायिकेषु नित्यनिगोदसाधारणचतुर्गति निगोदसाधारणाविति षट् भेदाः । प्रत्येकं बादरसूक्ष्माविति द्वादश । प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिकस्य प्रतिष्ठिताप्रति - ष्ठिताविति द्वो । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया इति त्रयः । पञ्चेन्द्रियस्य असंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाविति द्वौ एवं सर्वे मिलित्वा एकोनविंशतिजीवसमासा भवन्ति । एते सर्वेऽपि प्रत्येकं पर्याप्तकाः निवृत्त्यपर्याप्तका लब्ध्यपर्याप्तकाश्च २० भवन्तीति विस्तरतो जीवसमासा सप्तपञ्चाशद्भेदा भवन्ति ॥ ७३ ॥ अथैषां सप्तपञ्चाशज्जीवभेदानां अवान्तरविशेष प्रदर्शनार्थ स्थानाद्यधिकारचतुष्टयमाह - आगे संक्षेपसे जीवसमासोंके स्थान कहते हैं एकेन्द्रियके बादर और सूक्ष्म दो भेद, विकलत्रय के दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय ये तीन भेद, पंचेन्द्रियके संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद, इस तरह ये सात जीवभेद हुए । प्रत्येक २५ भेदको पर्याप्त और अपर्याप्त से गुणा करने पर संक्षेपसे चौदह जीवसमास होते हैं || ७२ || आगे विस्तारसे जीवसमासको कहते हैं पृथ्वीकायिक, अकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिकों में नित्य निगोद साधारण तथा चतुर्गति निगोद साधारण ये छह भेद हुए । प्रत्येकके बादर और सूक्ष्म भेद होने से बारह हुए । प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिकके सप्रतिष्ठित अप्रतिष्टित ये दो भेद हैं । ३० दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन विकलत्रय हैं। पंचेन्द्रियके असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये दो भेद, ये सब मिलकर उन्नीस जीवसमास होते हैं। इन सबमें भी प्रत्येक पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं। इस प्रकार विस्तारसे जीवसमास के सत्तावन भेद होते हैं ॥ ७३ ॥ ● आगे इन सत्तावन जीव भेदोंके अवान्तर भेद बतलानेके लिए चार अधिकार ३५ कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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