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________________ १० १४८ गो. जीवकाण्डे हांगे एकद्वित्रिचतुःपचिद्रियभेददिदं पंचजीवसमासस्थानंगळप्पुवंते पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकभेददिदं षड् जीवसमासस्थानंगळप्पुर्वते पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकंगदितु पंचस्थावरकायंगळं कडेय त्रसकायद विकलेंद्रियसकलेंद्रियंगळे देरडुवितु सप्तजीवसमासस्थानंगळप्पुवंत पंचस्थावरकायंगळु विकलेंद्रियमसंज्ञिसंज्ञिपंचेंद्रियम दितु मरु त्रसकायमेदंगळं कूडि ये टु जीवसमासस्थानंगळप्प० । वहंगे पंचस्थावरकायंगळं द्वित्रिचतुःपंचेंद्रियमें दो नाल्कु त्रसकायंगलुमितो भत्तु जीवसमासस्थानंगळप्पुवहंगे पंचस्थावरकायंगळू द्वित्रिचतुरिंद्रियंगळु संज्ञिपंचेंद्रियमुमसंज्ञिपंचेंदियमु मेंदितु पंचत्रसकायंगळु वितु पत्तु जीवसमासस्थानंगलप्पुवु ॥ पणजुगले तससहिए तसस्स दुतिचदुरपंचभेदजुदे । __ छडुंगपत्तेयम्मि य तसस्स वियचदुरपणग-भेदजुदे ॥७६।। पंचयुगले त्रससहिते प्रसस्य द्वित्रिचतुःपंचभेदयुते । षड्द्विकप्रत्येके च त्रसस्य त्रिचतुः पंचकभेदयुते ॥ अंते पंचस्थावरकायंगळु प्रत्येकं बादरसूक्ष्मभेददिदं द्विप्रकारमप्पुरिद पत्तु स्थावरकायंगळु त्रसकायमुमित एकादशजीवसमासस्थानंगळप्पुवहंगे पतुं स्थावरकायंगळं प्रकारान्तरैर्व्यवहारनयविवक्षा ज्ञातव्या । तद्यथा-एकेन्द्रियविकलेन्द्रि यौ तथा अन्त्यस्य सकलेन्द्रियस्य असंज्ञिसंज्ञिभेदो च मिलित्वा जीवसमासस्थानानि चत्वारि । तथा एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदजीवसमासस्थानानि पञ्च । तथा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकभेदात् जीवसमासस्थानानि षट् । तथा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः पञ्च अन्त्यस्य च त्रसकायस्य विकलेन्द्रियसकलेन्द्रियो द्वाविति मिलित्वा जीवसमासस्थानानि सप्त । तथा स्थावरकायाः पञ्च विकलेन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च त्रयो मिलित्वा जीवसमासस्थानान्यष्टो। तथा स्थावरकायाः पञ्च द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्च चत्वारः मिलित्वा जीवसमासस्थानानि नव । तथा स्थावरकायाः पञ्च द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च पञ्च मिलित्वा जीवसमासस्थानानि दश ॥७५।। तथा स्थावरकायाः पञ्चापि बादरसूक्ष्माः त्रसकायश्चेति जीवसमासस्थानान्येकादश । तथा स्थावरकाया दश विकलेन्द्रियसकलेन्द्रियो चेति जीवसमासस्थानानि द्वादश। तथा स्थावरकाया दश त्रसकायस्य विकलारान्तरसे नयविवक्षा जानना। वह इस प्रकार है-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तथा अन्तिम सकलेन्द्रियके असंज्ञी और संज्ञी भेद मिलकर जीवसमासके स्थान चार हैं। तथा एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे जीवसमासके स्थान पाँच हैं। तथा २५ पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिकके भेदसे जीवसमासके स्थान छह हैं। तथा पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायु. कायिक, वनस्पतिकायिक पाँच और अन्तिम त्रसकायके विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय ये दो भेद मिलकर जीवसमासके स्थान सात हैं। तथा स्थावरकाय पाँच और विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय भेद मिलकर जीवसमासके स्थान आठ हैं। तथा स्थावर काय पाँच, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये चार मिलकर जीवसमासके स्थान नौ हैं। तथा स्थावरकाय पाँच और दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये पांच मिलकर जीवसमासके स्थान दस होते हैं ।।७५॥ तथा स्थावर काय पाँचों भी बादर और सूक्ष्म तथा त्रसकाय मिलकर जीव समासके स्थान ग्यारह होते हैं । तथा स्थावरकाय दस और विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय ये मिलकर जीव३५ १. म लुक्कमि । २० ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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