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________________ १४० गो० जीवकाण्डे मत्तमवर्गळेतप्पर दौड लोकाग्रनिवासिनः लोक्यते जीवादयः पदार्थाः अस्मिन्निति लोकः एंदितप्प लोकत्रयसग्निवेशाग्नदोळ्तनुवातप्रांतदोळ् निवासिगळु स्थस्नुगळ एत्तलानु कम्मक्षयक्षेत्रदत्तणिदं मेगणि कर्मक्षयानंतरमंतप्प गमनस्वाभाव्यदणिमवर्गळेय्दुवरंतेरिददोडं लोका प्रदणिंदमूर्ध्वगमनसहकारि धर्मास्तिकायाभावदत्तणिदल्लिदं मेगणिसल्वरल्लरु इंतो लोकाग्र५ निवासित्वमे युक्तमव के दोडेऽन्यथा लोकालोकविभागाभावं प्रसंगिसुगुमिदरिंदमात्मंगे ऊवंगमनस्वाभाव्यदत्तणिदं मुक्तावस्थे योळेल्लियु विश्रमाभावदिदं मेळे मेळे पोपने दि पेळ्व मंडलिमतं प्रत्यस्तमायतु। सदसिव संखो मक्कडि बुद्धो णइयाइयो य वैसेसी । ईसर-मंडलिदंसणविदूसण? कयं एदं ॥६९॥ १० सदाशिवसांख्यमस्करोबुद्धनैयायिकवैशेषिकेश्वरमंडलिदर्शनविदूषणार्थ तमेतद्विशेषणं ॥ ई गाथासूत्रदिदं पूर्वोक्तविशेषणंगळगुदाहरणोल्लेखनं तोरल्पद्रुदु। सदाशिवः सदाऽकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितम् । मस्करी फिल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिम् ।। क्षणिकं निर्गुणं चैव बुद्धो यौगश्च मन्यते । कृतकृत्यं त्यमीशानो मंडली चोध्वंगामिनम् ॥ एंदितु ।। १५ निवासिनः स्थास्नवः । यद्यपि कर्मक्षयक्षेत्रादुपर्येव कर्मक्षयानन्तरं तथागमनस्वाभाव्यात ते गच्छन्ति तथापि लोकाग्रत ऊध्वंगमनसहकारिधर्मास्तिकायाभावान्न तदुपरि इतीदं लोकाग्रनिवासित्वमेव युक्तं तेषां, अन्यथा लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते । अनेन आत्मनः ऊर्ध्वगमनस्वाभाव्यात् मुक्तावस्थायां क्वचिदपि विश्रामाभावात् उपर्युपरि गमनमिति वदन्माण्डलिकमतं प्रत्यस्तं ॥६८॥ सदाशिवसांख्यमस्करिबुद्धनैयायिकवैशेषिकेश्वरमण्डलिदर्शनविदूषणार्थं कृतमेतद्विशेषणं । इत्याचार्य नेमिचन्द्र विरचितायां गोम्मटसारापरनाम पञ्चसंग्रहवृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे विंशतिप्ररूपणासु गुणस्थानप्ररूपणा नाम प्रथमोऽधिकारः ॥१॥ जाना आत्माकी मुक्ति है, ऐसा कहनेवाले नैयायिक-वैशेषिकोंके अभिप्रायका निराकरण किया। तथा वे सिद्ध कृतकृत्य हैं अर्थात् उन्होंने सकल कोका क्षय और उनके कारणादि२५ का अनुष्ठानरूप सब कृत्य पर्ण कर लिया है। इससे ईश्वर सदा मुक्त होकर भी जगतके बनाने में लगा रहनेसे अकृतकृत्य है, ऐसा ईश्वर-सृष्टिवादियोंका अभिप्राय निराकृत किया। वे सिद्ध लोकाग्रनिवासी हैं। जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जायें, वह लोक है। इस प्रकार तीनों लोकोंके अग्रभाग तनुवातवलयके अन्तमें वे निवास करते हैं। यद्यपि वे जिस स्थानमें कर्मों का क्षय करते हैं;कोला क्षय करने के बाद उस क्षेत्रके ऊपर ही जानेका उनका स्वभाव ३० है,फिर भी लोकके अग्र भागसे आगे ऊर्ध्वगमनमें सहायक धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे उससे ऊपर नहीं जाते। इसलिए उनका लोकके अग्रभागमें निवास करना ही युक्त है; अन्यथा लोक और अलोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है। इससे 'आत्माका ऊर्ध्वगमनका स्वभाव होनेसे मुक्त होनेपर कहीं भी ठहरना सम्भव नहीं है। अतः सर्वदा ऊपर-ऊपर जाता है' ऐसा माननेवाले माण्डलिक मतका निराकरण किया ॥६॥ आगे श्री माधवचन्द्र विद्यदेव 'अष्टविधकर्मविकला' इत्यादि सात विशेषणोंका प्रयोजन कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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