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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३१ सर्वघातिशक्तियुक्तद्रव्यविभागनिमित्तमागि जिनदृष्टानंतभागहार । ख । मिरि भागिसि सर्व स ०१२-ख घातिकेवलज्ञानावरणीयकर्मक्केकभागमं कोटु शेषबहुभागमनिदं ७ ख गुणकार ऋणकरू १ पमवज्ञ गेदु भाज्यभागहारानंतगळनपत्तिसिदेशघातिगळप्प मतिज्ञानावरणीयं श्रुतज्ञानावरणीयमवधिज्ञानावरणीयं मनःपर्ययज्ञानावरणीयमें बो नाल्कक्कं पसुगे गेदोडोंदु स a १२मतिज्ञानावरणीयद्रव्यमिनितक्कु ७ । ४ इदनपकर्षण भागहारदिदं भागिसि बंदेकभागद्रव्यमं ५ स । १२ स० १२७ । ४ ओ पल्यासंख्यातदिदं भागिसि बंदेकभागद्रव्यम ७।४ ओ। प. मत्तमसंख्यातलोक स० १२भागहारविदं भागिसि बंदेकभागद्रव्यम ७।४ ओ।प=a अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे मज्झिम a स । १२-१ स । १२- । ख भक्तकभागं ७ ख सर्वघातिकेवलज्ञानावरणस्य दत्त्वा शेषबहुभागे ७ । ख गुणकारे ऋणैकरूपमवज्ञाय भाज्यभागहारभूतावनन्तावपवर्त्य देशघातिनां मतिश्रतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणानां चतुर्णा स। १२चतुभिर्भक्त्वा दत्ते मतिज्ञानावरणस्यैतावत् ७।४। इदमपकर्षणभागहारेण भक्त्वा बहुभागमिदं- १० स स १ । १२-उ ७। ४ उ तथैव तिष्ठतीति मत्वा शेषैकभागमिदं । १२- ७। ४ उ पल्यासंख्यातेन भक्त्वा बहुभाग कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयामसे समयप्रबद्धको गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है, उतना है। इसमें आयुकर्मका भी थोड़ा-सा द्रव्य है। इसलिए उसमें कुछ कम करनेपर शेष सब द्रव्य सात कोका है। इसलिए उस द्रव्यमें सातका भाग देनेपर एक भाग प्रमाण ज्ञानावरण कर्मका द्रव्य होता है। इसमें सर्वघाती और देशघातीका विभाग करनेके लिए जिन १५ भगवानके द्वारा देखे गये अनन्तका भाग देनेपर एक भाग प्रमाण तो सर्वघाती केवलज्ञानावरणका द्रव्य है , अवशेष बहुभाग प्रमाण मतिज्ञानावरण आदि देश घाति प्रकृतियोंका द्रव्य है। इस देशघाति द्रव्यको मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानावरणरूप चार देशघाति प्रकृतियों में विभाग करनेके लिए चारसे भाग देनेपर एक भागप्रमाण मतिज्ञानावरणका द्रव्य होता है। इस मतिज्ञानावरण द्रव्यमें अपकर्षण भागहारका भाग देकर बहुभाग तो २० वैसे ही स्थित रहता है,ऐसा जानकर एक भागका ग्रहण किया। विशेषार्थ-यहाँ मतिज्ञानावरणके द्रव्यको उदाहरणके रूपमें लिया है,इसलिए केवल उसीके व्यका ग्रहण किया है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंका भी जानना। तथा जैसे अन्नकी राशिमें-से चार भाग करके किसी कार्यके लिए एक भाग ग्रहण करके शेष बहुभाग वैसे ही रख देते हैं,वैसे ही मतिज्ञानावरणके द्रव्यमें अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागको २५ अन्य रूप परिणमानेके लिए ग्रहण किया और शेष बहुभाग द्रव्य जैसे पहले अपनी स्थितिके समय सम्बन्धी निषेकोंमें स्थित था,वैसे ही रहा। विवक्षित भागहारका भाग देनेपर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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