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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानस्वरूपप्ररूपणार्थमी सूत्रमं पेळ्दपरु धुवकोसुंभयवत्थं होदि जहा सुहुमरायसंजुत्तं । एवं सुहुमकसाओ सहुमसरागोत्ति णादव्वो ॥५८।। धौतकोसुंभवस्त्रं भवति यथा सूक्ष्मरागसंयुक्तं । एवं सूक्ष्मकषायः सूक्ष्मसराग इति ज्ञातव्यः॥ एंतीगळ्यौतकौसुंभवस्त्रं सूक्ष्मरागसंयुक्तं अक्कुमंते मुंदणसूत्रदि पेळव प्रकारदिदं सूक्ष्म- ५ कृष्टिगतलोभकषायं सूक्ष्मसांपरायनेंनितरियल्पडुगुं ॥ अनंतरं सूक्ष्मकृष्टिगतत्वस्वरूपनिरूपणात्थं ई गाथाद्वयमं पेळ्दपरु पुवापुव्वप्फड्डयबादरसुहुमगयकिट्टियणुभागा । हीणकमाणंतगुणेणवरादु वरं च हेट्ठस्स ॥१९॥ पूर्वापूर्वस्पर्द्धकबादरसूक्ष्मगतकृष्टयनुभागाः हीनक्रमाः अनंतगुणेनावराद्वरश्चाधस्तनस्य ॥ १० मुन्नमनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळसंसारावस्थयोळ्संभवमनुळळ कर्मशक्तिसमूहरूपपूर्वस्पर्द्धकं गळगे (उ। व्व । ना) अनिवृत्तिकरणपरिणामंगळिद क्रियमाणंगळप्प तदनंतैक ज०८ परिणामकार्यमिति सूचितं ॥५७।। अथ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानस्वरूपमाह यथा धौतकोसुम्भवस्त्रं सूक्ष्मरागसंयुक्तं भवति तथाग्रतनसूत्रोक्तप्रकारेण सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायः १५ सूक्ष्मसापराय इति ज्ञातव्यः ॥५८।। अथ सूक्ष्मकृष्टिगतस्वरूपं गाथाद्वयेन निरूपयतिपूर्व अनिवृत्तिकरणस्थाने संसारावस्थायां संभवत्कर्मशक्तिसमूहरूपस्पर्धकानां ( उ । व ९। ना) अनि ज।व। १ आगे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं जैसे कुसुम्भसे रंगा हुआ वस्त्र सम्यक् रूपसे धोनेपर भी सूक्ष्म लाल रंगसे युक्त होता २० है, उसी प्रकार आगेके सूत्रमें कहे विधानके अनुसार सूक्ष्म कृष्टिको प्राप्त लोभकषायसे युक्त जीवको सूक्ष्म साम्पराय जानना ॥५८|| _ विशेषार्थ-राग अर्थात् यथाख्यात चारित्रको रोकनेवाला कषाय रंग, उसके साथ जो हो,वह सराग अर्थात् विशुद्धि परिणाम । सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मकृष्टि अनुभागोदयसे सहचरित सराग जिसका है,वह सूक्ष्म सराग अर्थात सूक्ष्म साम्पराय है ॥५८॥ २५ पूर्व अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें अथवा संसार अवस्थामें होनेवाले कर्मकी शक्ति समूह रूप पूर्वस्पर्धक, अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा किये उनके अनन्तवें भाग प्रमाण अपूर्व स्पर्धक, उन्हीं परिणामों के द्वारा की गयी बादरकृष्टि और उन्हींके द्वारा की गयी कर्मशक्तिका सूक्ष्म खण्डरूप सूक्ष्मकृष्टि,इनका अनुभाग यथाक्रम अपने उत्कृष्टसे अपना जघन्य और ऊरके जघन्यसे नीचेका उत्कृष्ट क्रमसे अनन्त गुणा हीन है ।।५९॥ विशेषार्थ-इन पूर्व स्पर्धक आदिका स्वरूप यहाँ कहते हैं। जैसा पं. टोडरमलजीने लिखा है-कर्मप्रकृतिरूप परिणत परमाणुओंमें जो फल देनेकी शक्ति है,उसको अनुभाग कहते हैं । उस अनुभागका ऐसा कोई केवलज्ञान गम्य अंश जिसका दूसरा भाग नहीं हो सकता, ३० १. म पेल्द । २. म यमेदितरि । ३. मगलोडने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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