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________________ ४।१ १०२ गो० जीवकाण्डे यथासंभवविशुद्धिवृद्धियिदं वर्द्धमानंगळ्चयाधिकंगळु = a जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विकल्पंगळपरगे पेळ्दंत संख्यातलोकवार षट्स्थानपतित वृद्धिकंगळु द्वितीयसमयप्रथमखंड परिणामंगळप्पवु । इंती प्रकारदिदं प्रथमादिसमयंगळोळु द्वितीयादिखंड परिणामंगळु चयाधिकंगळु मोळववर विशुध्यल्पबहुत्वमितु पेळल्पडुगुमदतने : प्रथमसमयदोळु प्रथमखंडजघन्यपरिणामविशुद्धि सर्वतः स्तोकमागियुं जीवराश्यनंतगुणाविभागप्रतिच्छेदसमूहात्मिकयक्कु १६ । ख । मदं नोडल्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धियुमनंतगुणमदं नोडद्वितीयखंडजघन्यपरिणामविशुद्धियनंतगुणमदं नोडल्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धियनंतगुणमितु तृतीयादिखंडंगळोळु जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धिगळु मनंतगुणितक्रदिदं चरमखंडोस्कृष्टपरिणामविशुद्धिपय्यंत प्रत्तिपवु। मत्ते प्रथमसमयप्रथमखंडोत्कृष्टपरिणामविशुद्धियं नोडलु द्वितीयसमयप्रथमखंडमखंडजघन्यपरिणामविशुद्धियनंतगुणं तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धियदं नोडल १० वधिताः संति । तथा-द्वितीयसमयप्रथमखण्डपरिणामाश्चयाधिका जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्पाः प्राग्वदसंख्यात लोकषट्स्थानवृद्धिवधिताः संति । एवं तृतीयसमयादिचरमसमयपर्यन्तं चयाधिकाः प्रथमखण्डपरिणामाः संति १५ तथा प्रथमादिसमयः द्वितीयादिखण्डपरिणामाः अपि चयाधिकाः संति । अथ तेषां विशुद्धयल्पबहुत्वमुच्यते तद्यथा-प्रथमसमयप्रथमखण्ड ३९ जघन्यपरिणामविशुद्धिः सर्वतः स्तोकापि जीवराशितोऽनन्तगुणाविभागप्रतिच्छेदसमूहात्मिका भवति १६ ख। अत ३९ स्तदुत्कृष्टपरिणाम. विशुद्धिरनन्तगुणा । ततो द्वितीयखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा । ततस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा । एवं तृतीयादिखण्डेष्वपि जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणाः अनन्तगुणाश्चरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धि२० पर्यन्तं वर्तन्ते । पुनः प्रथमसमयप्रथमखण्डोत्कृष्ट परिणामविशुद्धितो द्वितीयसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धि लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धिसे वर्धमान प्रथमखण्डके परिणाम हैं। इसी तरह द्वितीय समयके प्रथम खण्डके परिणाम अनुकृष्टिचय अधिक हैं। वे जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेदको लिये हुए हैं। सो ये भी पूर्वोक्त प्रकार असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित-वृद्धिसे वर्धमान हैं। उक्त कथनका आशय यह है कि एक अधिक सूच्यंगुलके धनको एक अधिक सूच्यंगुल २५ के वर्गसे गुणा करनेपर जो संख्या आवे,उतने परिणामोंमें यदि एक बार षट्स्थान वृद्धि होती है,तो अनुकृष्टि चय प्रमाण परिणामोंमें कितनी बार षटम्थान वृद्धि होगी ऐसा त्रैराशिक करनेपर जितना प्राप्त हो.उतनी बार अधिक षटस्थान पतित वृद्धि प्रथम समयके प्रथम खण्डसे द्वितीय समय के प्रथम खण्डमें होती है। इसी प्रकार तृतीयसे लेकर अन्त पर्यन्त समयोंके प्रथम खण्डके परिणाम एक-एक अनुकृष्टिचय अधिक हैं। इसी तरह प्रथमादि ३० समयोंके अपने-अपने प्रथम खण्डसे द्वितीय आदि खण्डोंके परिणाम भी क्रमसे एक-एक चय अधिक हैं। उनमें यथासम्भव षट्स्थान पतित वृद्धि जितनी बार हो, उसका प्रमाण जानना । अब उन खण्डोंमें विशुद्धताके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा अल्प-बहुत्व कहते हैं-प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्डके जघन्य परिणामकी विशुद्धता अन्य सबसे अल्प है; तथापि जीवराशिका जो प्रमाण है , उससे अनन्त गुणे अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहको ३५ लिये हए है। इससे उसी प्रथम समयके प्रथम खण्ड के उत्कृष्ट परिणामकी विश अनन्त गुणी है । उससे द्वितीय खण्डके जघन्य परिणामकी विशुद्धता अनन्तगुणी है । उससे उसीके १. म वु। इंतु चरमपर्यंत चयाधिकंगलु प्रथमखंड परिणाममंगलप्पुवु यिती । २. व मयदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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