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________________ प्रस्तावना १३ करता था, वह सिद्धान्तचक्रवर्ती कहाता था। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उसके रचयिता नेमिचन्द्राचार्य ने एक गाथा' के द्वारा इस बात को स्पष्ट लिखा है कि जैसे चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न के द्वारा भरत के छह खण्डों को बिना विघ्न-बाधा के साधित करता है, उसी प्रकार मैंने अपने वृद्धिरूपी चक्र के द्वारा सिद्धान्त के छह खण्डों को साधा है। षटखण्डागम को लेकर सिद्धान्तचक्रवर्ती का विरुद कब, कैसे, किसने प्रचलित किया, यह ज्ञात नहीं होता। वीरसेन स्वामी और उनके गुरु एलाचार्य दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों के ज्ञाता थे और वीरसेन स्वामी ने तो दोनों पर विशाल टीका ग्रन्थ रचे थे। उनके समय तक इस उपाधि का कोई संकेत नहीं मिलता। उनकी धवला, जयधवला के रचे जाने के पश्चात् ही इस उपाधि की चर्चा मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन टीका ग्रन्थों के निर्माण के पश्चात् इनके पठन-पाठन की विशेष प्रवृत्ति हुई और तभी से सिद्धान्तचक्रवर्ती का विरुद प्रवर्तित हुआ। इस तरह उत्तरकाल में भी षट्खण्डागम का विशेष महत्त्व रहा है और पखण्डागम ने अपनी टीका धवला के कारण ही विश्रुति पायी है तथा दोनों ही सिद्धान्त ग्रन्थ अपने-अपने मूल नाम को छोड़कर धवल और जयधवल नाम से ही विश्रुत हए। अपभ्रंश महापुराण के रचयिता पुष्पदन्त ने उनका उल्लेख इन्हीं नामों से किया है। यथा-'सिद्धंतु धवलु जयधवलु णाम' । इन्हीं धवल-जयधवल सिद्धान्तों का अवगाहन करके आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार नामक ग्रन्थ को निबद्ध किया था। गोम्मटसार-नाम गोम्मटसार-नाम का प्रथम पद 'गोम्मट' सुनने में कुछ विचित्र-सा लगता है। यह शब्द न तो संस्कृत भाषा के कोशों में मिलता है और न प्राकृत भाषा के। अतः यह शब्द विद्वानों के विवाद का विषय रहा है। इस गोम्मट नाम से ही श्रवणबेलगोला में गंगनरेश राममल्ल के प्रधानमन्त्री और सेनापति चामुण्डराय के द्वारा स्थापित बाहबली की उत्तंग मूर्ति भी विश्रत है। उसे भी गोम्मटस्वामी या गोम्मटजिन कहते हैं। मूल रूप से ये दो ही वस्तु ऐसी हैं जो गोम्मट नाम से व्यवहृत होती हैं। उसी मूर्ति के अनुकरण पर जो अन्य मूर्तियाँ कारकल और वेणूर में निर्मित हुईं, वे भी गोम्मट के नाम से ही व्यवहत हुई। इस गोम्मट नाम के सम्बन्ध में एक लेख श्री गोविन्द पै का “जैन सिद्धान्त भास्कर", आरा, जिल्द ४, पृ. १०२-६ में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि बाहुबली कामदेव होने के कारण मन्मथ कहे जाते थे, जिसका कनडी में गोम्मट एक तद्भव रूप है, जिसे मराठी से लिया गया है। इसके बाद डॉ. ए. एन. उपाध्ये के भारतीय विद्या (जि. २, भाग १) में प्रकाशित अनुसन्धानपूर्ण लेख का हिन्दी अनुवाद अनेकान्त वर्ष ४ की किरण तीन और चार में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक है-गोम्मट । इसमें विद्वान लेखक ने सभी मतों की समीक्षा करते हुए जो प्रमाण अपने मत के समर्थन में दिये; उनसे यह विवाद दूर हो गया और उसके पश्चात् किसी का भी कोई लेख इसके विरोध में हमारे देखने में नहीं आया। उस लेख का सारांश यहाँ दिया जाता है। ग्रन्थ के निर्माण में निमित्त चामुण्डराय-गोम्मट यह हम ऊपर लिख आये हैं कि 'गोम्मट' नाम से व्यवहृत मूलतः दो वस्तुएँ हैं-एक गोम्मटसार नामक ग्रन्थ और दूसरी श्रवणबेलगोला के विन्ध्यगिरि पर्वत पर स्थापित बाहुबली की उत्तुंग मूर्ति और इन दोनों का सम्बन्ध जिस एक व्यक्ति से है वह है-गंग साम्राज्य का प्रधानमन्त्री और सेनापति चामुण्डराय। चामुण्डराय ने ही उक्त मूर्ति की प्रतिष्ठाविधि आदि करायी थी। तथा गोम्मटसार के टीकाकार अभयचन्द्र, केशववर्णी और 1. जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण। तह मइचक्केण मया छक्खंड साहियं सम्म ॥ कर्मकाण्ड अ. 1, गा. 39' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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