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________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७९ नष्टशेषप्रमादनं व्रतगुणशीलावलिमंडितनुं सम्यज्ञानोपयुक्तनुं धम्मंध्याननिलीन मानसनुमप्रमत्तसंयतनुमेनेवरमुपशमश्रेण्यारोहणाभिमुखनुमागियं क्षपकश्रेण्यारोहणाभिमुखनु मागियं वतसनातनं नवरं स्वस्यानाप्रमत्तने दु निर्देशिसल्पटं । इल्लि ज्ञानिये बी विशेषणदिदं सम्यग्दर्शनचारित्रंगळते सम्यज्ञानक्कुमं मोक्षहेतुत्वं सूचितमादुदु || तदनन्तरं सातिशयाप्रमत्तस्वरूपनिरूपणार्थमिदं पेळूदपरु । surataमोहखवणुसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । पढमं अधापमत्तं करणं तु करेदि अपमत्तो ||४७॥ एकविंशतिमोहक्षपणोपशमननिमित्तानि त्रिकरणानि तेषु । प्रथममधः प्रवृत्त करणं तु करोत्यप्रमत्तः ॥ दिल्लि विशेषकथनमुंदे ते दोडे प्रतिसमयमनंतगुण विशुद्धिवृद्धियिदं वर्द्धमाननुं वेदकसम्यग्दृष्टियुमप्पप्रमत्तसंयतं मोदलोळनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमं करणत्रयपूर्वक द्वादशकषायनवनोकषायस्वरूपमप्पंतु संक्रमविधानदि विसंयोजिसि बळिक्कमंतर्मुहूर्तकालं विश्रमिति मत्तेयुं (येन परिणामेन दर्शनचारित्रमोहोपशमनादिविवक्षितो भावः क्रियते निःपाद्यते साध स परिणामः करणः ) इंतप्प करणत्रयमं माडि दर्शनमोहनीयमुमनुपशमियिसि द्वितीयोपशम १५ यो नष्टाशेषप्रमादः व्रतगुणशी लावलीभिर्मण्डितः सम्यग्ज्ञानोपयोगयुक्तः धर्म्यध्यान निलोनमनाः अप्रमत्तसंयतो यावदुपशमश्रेण्यभिमुखः क्षपकश्रेण्यभिमुखो वा चटितुं न वर्तते तावत् स खलु स्वस्थानाप्रमत्त इत्युच्यते । अत्र ज्ञानीति विशेषणं सम्यग्दर्शनचारित्रवत् सम्यग्ज्ञानस्यापि मोक्षहेतुत्वं सूचयति ॥ ४६ ॥ अथ सातिशयाप्रमत्तसंयतस्वरूपमाह — यः प्रतिसमय मनन्तगुणविशुद्धिवृद्धया वर्धमानो वेदकसम्यग्दृष्टिः अप्रमत्तसंयतः सः प्रथमं अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयं करणत्रयपूर्वकं संक्रमणविधानेन द्वादशकषायनवनोकषायस्वरूपेण विसंयोजयति-परिणामयति तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तकालं विश्राम्य पुनरपि करणत्रयेण दर्शनमोहत्रयमुपशमय्य द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिर्भवति । २० जिस जीवके समस्त प्रमाद नष्ट हो गये हैं, और व्रत, गुण, शीलकी पंक्तिसे भूषित है, सम्यग्ज्ञानके उपयोगसे युक्त है, तथा जिसका मन धर्मध्यानमें लीन है, ऐसा अप्रमत्त संयत जबतक उपशम श्रेणि या क्षपक श्रेणिके सन्मुख चढ़नेके लिए प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसे स्वस्थानाप्रमत्त कहते हैं । यहाँ ज्ञानी विशेषण यह सूचित करता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रकी तरह सम्यग्ज्ञान भी मोक्षका कारण है । अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व और उसके पश्चात् चारित्रका कथन करनेसे कोई यह न समझे कि ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं, इसलिए यहाँ ज्ञानी विशेषण दिया है ||४६ || १० Jain Education International आगे सातिशय अप्रमत्तका स्वरूप कहते हैं ३० जिसकी विशुद्धि - कषायोंकी मन्दता प्रतिसमय अनन्तगुणी बढ़ती हुई होती है अर्थात् प्रथम समयकी विशुद्धतासे दूसरे समयकी विशुद्धता अनन्तगुणी, उससे तीसरे समयकी विशुद्धता अनन्त गुणी, इस तरह प्रतिसमय जिसकी विशुद्धता बढ़ती हुई हो, वह वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती जीव पहले अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्टयको अधःकरण, अपूर्वकरण,अनिवृत्तिकरण पूर्वक संक्रमण विधानके द्वारा बारह कषाय और नौ नोकषायरूपसे परिणमाता है । इसीका नाम विसंयोजन है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करके पुनः तीन करणोंके द्वारा दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका उपशम करके ३५ For Private & Personal Use Only २५ www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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