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________________ गो० जीवकाण्डे सम्यग्दृष्टियागि अथवा दर्शन मोहत्रयमं करणत्रयपूर्वकं क्षपियिसि क्षायिक सम्यग्दृष्टियागि मत्तमंतहूत्तकालपर्यंतं प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थानंगळ परावृत्तिसहस्रंगलं माडि मत्तं प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धिवृद्धियिदं वर्द्धमाननु मेकविंशतिप्रकृतिभेदभिन्नचारित्रमोहनीयमनुपशभिसल्क दुद्युक्तनुमा प्रकृति मेणु क्षपिपिसल्क दु क्षायिकसम्यग्दृष्टिये उद्युक्त नवकुमितप्प सातिशयाप्रमत्तं ५ चारित्रमोहोपशमनक्षपणनिमित्तकरणत्रयपरिणामंगल मोलोधः प्रवृत्तकरणमं माळकुम्बु दत्थं ॥ १० ८० निर्दिष्टं ॥ अथवा तत्करणत्रयेण तद्दर्शनमोहत्रयं क्षपयित्वा क्षायिक सम्यग्दृष्टिर्भवति । तदनन्तरमन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्तं प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोः परावृत्तिसहस्राणि करोति । तदनन्तरं प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धघा वर्धमानः एकविंशतिचारित्रमोहनीयप्रकृती रुपशमयितुमुद्युक्तो भवति । अथवा ताः एकविंशतिचारित्र मोह प्रकृती: १५ क्षपयितुं क्षायिक सम्यग्दृष्टिरेवोद्युक्तो भवति । स एवंविधः सातिशयाप्रमत्त एव चारित्रमोहोपशमनक्षपण निमित्तकरणत्रयपरिणामेषु मध्ये प्रथमं अधःप्रवृत्तकरणं करोतीत्यर्थः ॥४७॥ अथ अधःप्रवृत्तकरणस्य निरुक्तिसिद्धं लक्षणं कथयति २५ २० द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होता है । अथवा उन तीन करणोंके द्वारा दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में हजारों बार आता-जाता है अर्थात् अप्रमत्तसे प्रमत्त और प्रमत्तसे अप्रमत्त होता है । उसके पश्चात् प्रति समय अनन्त गुण विशुद्धिसे बढ़ता हुआ चारित्रमोहनीकी इक्कीस प्रकृतियों का उपशम करनेमें तत्पर होता है। अथवा चारित्र मोहनीयकी उन इक्कीस प्रकृतियोंका क्षय करनेके लिए तत्पर होता है । किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही उनका क्षय करने में समर्थ होता है । आशय यह है कि उपशम श्रेणी पर आरोहण तो द्वितीयो - सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों ही कर सकते हैं, किन्तु क्षपक श्रेणि पर केवल क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही आरोहण कर सकता है। इस प्रकारका वह सातिशय अप्रमत्त ही चारित्र मोहके उपशम और क्षपण में निमित्त तीन करण रूप परिणामों में से प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको करता है ||४७॥ ३० तदनन्तरमीयधः प्रवृतकरणक्के निरुक्तिसिद्धमप्प लक्षणमं तोरेलेंदिदं पेळूदपरु जम्हा उवरिमभावा डिमभाव सरिसगा होंति । तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोति णिहि ॥४८॥ यस्मादुपरिमभावा अवस्तनभावः सदृशा भवन्ति । तस्मात्तत्प्रथमं करणमधः प्रवृत्तमिति आगे अधःकरणका निरुक्तिसे सिद्ध लक्षण कहते हैं जिस कारण से ऊपर-ऊपर के समय सम्बन्धी परिणामोंके साथ अन्य जीवके नीचेके समय सम्बन्धी परिणाम समान होते हैं, तिस कारणसे उस प्रथम करणको परमागम में अधःकरण कहा है। १. क तोरलिदं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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