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________________ ५ १० गो० जीवकाण्डे प्रमादालापमी राष्ट्रकथालापी लोभी स्पर्शनेंद्रियवशगतो निद्रालु: स्नेहवानेंबीयालापद संख्याप्रमाणमक्कु १५ मितल्लेडेयाळमिपांगिनिंद मक्षं धृत्वा संख्यानयनमुद्दिष्ट में बक्षसंख्येयं साधिसुवुदु ॥ तदनंतरं नष्टोद्दिष्टंगळगे गूढयंत्रस्वरूपमं तोरिदपरु - इगिवितिचपणख पण दसपण्णरसं खवीसतालसट्ठी य । संठविय पमदठाणे णट्ठद्दिट्ठ च जाण तिट्ठाणे ॥४३॥ ( ४३ तमगाथा न विद्यते मूलप्रतौ ) एकस्मिन्नपनीते शेषं पञ्चदश राष्ट्रकथालापी लोभी स्पर्शनेन्द्रियवशगतः निद्रालुः स्नेहवान् इत्यक्षाङ्कितप्रमादालापस्य संख्या भवति । एवं सर्वत्रापि अक्षं घृत्वा संख्यानयनमुद्दिष्टं सर्वत्र साधयेत् ॥४२॥ अथ प्रथमप्रस्ताराक्षसंचारमाश्रित्य नष्टोद्दिष्ट योगूढयन्त्रस्वरूपमाह— श्री ५, नष्टोद्दिष्टयोर्यन्त्रमिदं - स्प १ र २, घ्रा ३, च ४, क्रोध० मा ५, मा १०, लो १५, स्त्री०, भ २०, रा ४०, अ ६०, प्रमादस्थानेषु इन्द्रियाणां पञ्चसु कोष्ठेषु यथासंख्यं एकद्वित्रिचतुः पञ्चाङ्कान् संस्थाप्य तथा कषायाणां चतुर्षु कोष्ठेषु यथासंख्यं शून्यपञ्चदशपञ्चदशाङ्कान् संस्थाप्य तथा विकथानां चतुर्षु कोष्ठेषु यथासंख्यं शून्य१५ विशतिचत्वारिंशत्षष्ट्यङ्कान् संस्थाप्य निद्रास्नेहयोद्वित्वत्रित्वाद्य भावेन [न] तद्धेतुकं आलापानां संख्या बहुत्वं संभवतीति तेषु त्रिस्थानेष्वेव स्थापिताङ्केषु नष्टमुद्दिष्टं च जानीहि । तत्र नष्टं यथा - पञ्चत्रिंशत्तमः आलापः कीदृग ? इति प्रश्ने इन्द्रियकषायविकथानां यद्यत्कोष्ठगता शून्येषु मिलितेषु सा संख्या स्यात् ३५ ७४ विकथा की संख्या चारसे गुणा करनेपर सोलह (१६) होते हैं । यहाँ भी अनंकित स्थान एक है, क्योंकि पन्द्रहवें आलाप में राष्ट्रकथा अंकित है। अतः एक घटा देनेपर शेष पन्द्रह रहते हैं । २० यही 'राष्ट्रकथालापी, लोभी, स्पर्शन इन्द्रियके आधीन, निद्रालु, स्नेहवान्', इस इष्ट प्रमादके आलापकी संख्याका प्रमाण है । इसी प्रकार सर्वत्र अक्ष रखकर संख्या निकालनेको उद्दिष्ट कहते हैं । उसकी साधना करनी चाहिए ||४२ ॥ आगे प्रथम प्रस्तारके अक्षसंचारको लेकर नष्ट - उद्दिष्टके गूढ़ यन्त्रका स्वरूप कहते हैंप्रमाद के स्थानों में इन्द्रियोंके पाँच कोठोंमें क्रमसे एक, दो, तीन, चार और पाँचके अंक २५ स्थापित करके, तथा कषायके चार कोठोंमें क्रम से शून्य, पाँच, दस, पन्द्रह के अंकोंको स्थापित करके तथा विकथाके चार कोठोंमें क्रमसे शून्य, बीस, चालीस और साठके अंक स्थापित करो । निद्रा और स्नेहके दो-तीन आदि भेद न होनेसे उनके कारण आलापोंकी संख्या में वृद्धि नहीं होती । इसलिए तीन ही स्थानों में अंक स्थापित करके नष्ट और उद्दिष्ट जाना जाता है । उक्त क्रमसे अंक स्थापित करनेपर नष्ट और उद्दिष्टका यन्त्र इस प्रकार होता है ३० घा ३ श्री ५ मा १० भ० २० रा ४० अ ६० पहले नष्टको लीजिए— पैंतीसवाँ आलाप कौन-सा है ? ऐसा प्रश्न होनेपर इन्द्रिय कषाय और विकथाके जिस-जिस कोठे में स्थित अंक और शून्यको जोड़नेपर वह संख्या आती है, उस उस कोठे में स्थित प्रमादों में स्नेह और निद्राको प्रारम्भमें रखने पर स्नेही, निद्रालु, श्रोत्रेन्द्रियके अधीन, मायावी, भक्तकथालापी ये पूछा हुआ आलाप होता है। तथा इकसठवाँ Jain Education International स्प. १ क्रोध० खी० र २ मा ५ For Private & Personal Use Only च० ४ लो० १५ www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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