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________________ ७३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संठाविद्ण रूवं उवरीदो संगुणित्तु सगमाणे । अवणिज्ज अणंकिदयं कुज्जा एमेव सव्वत्थ ।।४२॥ संस्थाप्यरूपमुपरितः संगुण्य स्वकमाने। अपनीयानंकितकं कुर्यादेवमेव सर्वत्र ॥ मोदलोळन्नेवरमोदु रूपमं संस्थापिसि उपरितनेंद्रियप्रमादसंख्यायदं गुणियिसियल्लियनंकितस्थानंगळ संख्येयं कळेदु मत्ते शेषमं तदनंतराधस्तनकषायप्रमादपिंडसंख्यायदं गुणियिसि मल्लियुमनंकितस्था- ५ नंगलं कळेदु शेषमं मत्ते तदनंतराधस्तन विकथाप्रमादपिंडसंख्यायदं गुणियिसियल्लियुमनंकितस्थानंगळं कळेदुळिद शेषमक्षांकितप्रमादालापसंख्येयमितु सर्वत्र गुणशीलादिगोळमुद्दिष्टानयनक्रममरियल्पडुगु मिल्लियुमुदाहरणमें तेने। - मोदलोळोदु रूपमं संस्थापिसियुपरितनेंद्रियप्रमादपिंडसंख्येयिदं गुणियिसि या लब्धराशि यैदरोळु ५ ,पदिनैदनयुद्दिष्टमं विवक्षिसिददक्के रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रंगळनंकितंगळप्पुरिदं १० नानाल्कं कळदुळिदोंदु रूपमं १ तदनंतराधस्तनकषायप्रमादपिंडसंख्यायदं ४ नारिदं गुणियिसि लब्धराशियोलु ४ नाल्करोळु अनंकितंगळल्लि शून्यमप्पुरिदं तच्छून्यमं कळेदोडराशिगे विकृतिसंभविसदप्पुरिंदा नाल्केयककुमाराशियं तदनंतराधस्तनविकथाप्रमादपिंडसंख्येयि ४ नाकरिदं गुणियिसिदोडे १६ पदिनारप्पवुमल्लियुमनंकितमो दो दं कळेदुळिद संख्येयदक्षांकित प्रथमं तावदेकरूपं संस्थाप्य उपरितनेन्द्रियप्रमादसंख्यया गुणयित्वा अत्रानङ्कितस्थानानां संख्यामपनीय पुनः शेषं तदनन्तराधस्तनकषायप्रमादपिण्डसंख्यया गुणयित्वा तत्राप्यनङ्कितस्थानान्यपनीय शेषं पुनस्तदनन्तराधस्तनविकथाप्रमादपिण्डसंख्यया गुणयित्वा तत्राप्यनङ्कितस्थानान्यपनीय शेषमक्षाङ्कितप्रमादालापसंख्या भवति । एवं सर्वत्र गुणशीलादिष्वपि उद्दिष्टानयनक्रमो ज्ञातव्यः। अत्राप्युदाहरणं प्रदर्श्यते-प्रथममेकरूपं संस्थाप्य' उपरितनेन्द्रियप्रमादसंख्यया पञ्चकेन गुणयित्वा तल्लब्धराशो पञ्चात्मके ५ पञ्चदशोद्दिष्टस्य विवक्षया, रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राण्यनङ्कितस्थानानीति चतुरोपनीय शेषकरूपं १ तदनन्तराधस्तनकषायसंख्यया ४ चतुभिर्गुणयित्वा २० तल्लब्धराशौ ४ चतुरात्मके अनङ्कितस्थानमत्र किमपि नास्ति इति शून्येऽअनीते राशेरविकृतिसंभवाच्चत्वार एव तस्मिन् राशो पुनस्तदनन्तराधस्तनविकथासंख्यया ४ चतुभिर्गुणिते १६ षोडश । अत्राप्यनङ्कितस्थाने पहले एकका अंक स्थापित करके ऊपरके इन्द्रिय प्रमादकी संख्यासे गुणा करके उसमें अनंकित स्थानोंकी संख्याको घटाकर जो शेष रहे, उसमें पुनः उसके नीचेके कषाय प्रमादके पिण्डकी संख्यासे गुणा करके उसमें-से भी अनंकित स्थानोंको घटाकर जो शेष रहे, उसमें २५ पुनः उससे नीचेके विकथा प्रमादकी पिण्ड संख्यासे गुणा करके उसमें से भी अनंकित स्थानोंको घटाकर जो शेष रहे,उतनी प्रमादके आलापकी संख्या होती है। इसी तरह सर्वत्र गुणशील आदिमें भी उद्दिष्ट लानेका क्रम जानना। यहाँ भी उदाहरण देते हैं-पहले एक अंक स्थापित करके ऊपरके इन्द्रिय प्रमादकी संख्या पाँचसे गणा करके लब्ध राशि पाँचमें अनंकित घटा देना चाहिए। तो ऊपरके पन्द्रहवें प्रमादालापमें केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय अंकित है। अतः रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र अनंकित होनेसे चार घटानेपर शेष एक रहता है । उस एकको उससे नीचेके प्रमाद कषायकी संख्या चारसे गुणा करके लब्ध राशि चारमें क्योंकि आलापमें लोभकषाय गृहीत है, इसलिए अनंकित स्थान कुछ भी न होनेसे शून्य घटानेपर अर्थात् कुछ भी न घटानेपर राशिमें कमी न होनेसे चार ही रहे । उस राशिमें पुनः उससे नीचेके प्रमाद १. मयल्लिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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