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________________ ७२ गो० जीवकाण्डे मक्कं । तल्लब्धदोळु रूपं प्रक्षेपिसुवुदंतु प्रक्षेपिसियुपरितनद्वितीयप्रमादप्रमाणपिंडदिदं भागिसलुळदडे भागिसिद शेषमल्लियक्षस्थानमक्कुं। तल्लब्धदोळु रूपं कूडे तृतीयप्रमादप्रमाणपिडदि भागिसुत्तिरलु लब्धं शन्यमादोडे शेषमेयक्षस्थानमक्कुमेत्तलानुमल्लल्लि भागिसि शेषं शून्यमादोडल्लल्लिय प्रमादंगळवसानस्थानदोळ ५ यक्षं निल्कुमा लब्धदोळेकरूपक्षेपमं माडलागदु। लब्धमं शून्यमादोडल्लिय शेषनेयक्षस्थानमक्कुमल्लियुं रूपक्षेपं माडलागदु। इल्लियुदाहरणमतेने : आवुदोंदु विवक्षितनष्टप्रमादसंख्येयनिद १५ प्रथमप्रमादप्रमाणपिडदिदं ४ भागिसिद लब्धं ३ तच्छेषमुं ३ इदा भूरनेय राष्ट्रकथालापिय बिल्लिगक्षमक्कु वरिदल्लियक्षमनिट्टदंतोडदु कळदु तल्लब्धमप्प मूररोळेकरूपमं प्रक्षेपं माडल्पडुवुदंतु मोडुत्तिरलदु नाल्कुक्कुमदं मेलण द्वितीयकषाय १० प्रमादपिडदिदं ४ भागिसुत्तिरलु शेषं शन्यमक्कुमा शून्यमे तत्कषायप्रमादंगळंत्यमाप लोभि एंबाला पस्थानदोळक्षसूचकमक्कुमदा शून्यमं बिट्टकळवुदु । तल्लब्धमेकरूपमक्कुमदरोळेकरूप क्षेपमं माडलागदु बळिक्क अदं मेलेणिद्रियप्रमादपिंडमिदरिदं ५ भागिसुवुदंतु भागिसुत्तिरखें लब्धं शून्यमक्कुमदरोळेकरूपक्षेपकमं माडलागदाशेषमप्पेकरूपमा स्पर्शनेद्रियवशगतने ब प्रमावदल्लियक्षम सूचिसुगुमितु पदिनैदिनय प्रमादराष्ट्रकथालापो लोभी स्पर्शनेंद्रियवशगतो निद्रालुः स्नेहवानेब १५ प्रमादालापमक्कुमें बुदर्थमिती नष्टालापमं साधिसुवुदु ॥ तदनंतरमालापमं पिडिदु संख्येयं साधिसल्वेडि मुंदण सूत्रमं पेळ्दपरु । पिण्डेन ४ भक्त्वा लब्धं त्रयं ३, शेषमपि त्रयं, इतिराष्ट्रकथायामक्षोऽस्ति इति तत्राक्षं दत्त्वा दर्शयेत् । तल्लब्धत्रये एक रूपं प्रक्षिप्य तच्चतुष्के तदुपरितनद्वितीयकषायप्रमादपिण्डेन ४ भक्त शेषं शून्यमिति तत्कषायप्रमादानामन्त्ये लोभालापस्थाने अक्षं सूचयतीति तत्र लिखेत् । तल्लब्धमेकरूपं तस्योपरि एकरूपप्रक्षेपो न कर्तव्यः । पुनस्तल्लब्धकरूपे उपरितनेन्द्रियप्रमादपिण्डेन ५ भक्ते लब्धं शून्यं, शेषमेकरूपमिति तत्स्पर्शनेन्द्रियवशगत इति प्रमादोऽक्ष सूचयति । एवं पञ्चदश प्रमादो राष्ट्रकथालापी लोभी स्पर्शनेन्द्रियवशंगतो निद्रालु: स्नेहवानित्यालापो भवतीत्यर्थः । एवमेव नष्टालापं साधयेत ॥४१॥ अथालापं धुत्वा संख्यां साधयितुमग्रतनसूत्रमाह होता है तथा उसके लब्धमें एक नहीं जोड़ना चाहिएं। यहाँ उदाहरण कहते हैं-जैसे २५ विवक्षित नष्ट प्रमादकी संख्या १५ है। प्रथम विकथा प्रमादके प्रमाणरूप पिण्ड ४ से उसमें भाग देनेपर लंब्ध तीन आया, शेष भी तीन ही रहा। तीसरी विकथा राष्ट्रकथामें अक्ष है अतः उसमें अक्ष देकर दिखलाना चाहिए। उसके लब्ध तीनमें एक जोड़कर चारमें उससे ऊपरके दूसरे प्रमाद कषायके पिण्डके प्रमाण चारसे भाग देनेपर शून्य शेष रहता है। इसलिए कषाय प्रमादके अन्तिम लोभके आलाप स्थानमें अक्ष सूचित होता है, उसे लिख लेवे । उसका ३० लब्ध एक है, उसमें एक नहीं जोड़ना चाहिए। उसमें ऊपरके इन्द्रिय प्रमादके पिण्डप्रमाण पाँचसे भाग देनेपर लब्ध तो शून्य है । शेष रहता है एक । अतः स्पर्शन इन्द्रियके आधीन यह प्रमाद अक्षको सूचित करता है। इस प्रकार पन्द्रहवाँ प्रमाद आलाप राष्ट्रकथालापी, लोभी, स्पर्शन इन्द्रियके आधीन, निद्रालु, स्नेहवान होता है। इसी प्रकार नष्ट आलापको साधना चाहिए ॥४॥ ३५ आगे आलापको रखकर उसकी संख्या लाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं १. मागुत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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