SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पोदवबागळ वृत्तितृतीयप्रमादाक्षं स्वद्वितीयस्थानदोळ 'संचरि सुगु मी क्रर्मादिदं प्रथम द्वितीयाक्षगळ तं तम्म पय्र्यंत प्राप्तिनिवृत्ति लिदं तृतीयप्रमादासक्के स्वतृतीयादिस्थानंगळोल संचार मरियल्प डुगु । मो यक्षसंचारक्रमं मेर्गेणिदं केळगणां विचारिसि प्रवर्त्तनीयमक्कुं । इल्लियक्षमें बुदक्के हंसपदं दृष्टकं । अनंतरं नष्टाक्षानयनप्रदर्शनार्थ पेदपरु | सगमाणेहि विभत्ते सेसं लक्खित्त जाण अक्खपदं । लद्धे रूवं पक्खिव सुद्धे अंते ण रुवपक्खेव || ४१ ॥ स्वकमानेन विभक्तं शेषं लक्षयित्वा जानीह्यक्षपदं । लब्धे रूपं प्रक्षिप शुद्धते न रूपप्रक्षेपः ॥ आदों विवक्षितमप्पप्रमादसंख्येयं प्रथमप्रमादप्रमाणादिद भागिसि निद शेषमक्षस्थानस्वस्वपर्यन्तप्राप्तिनिवृत्तिभ्यां तृतीयप्रमादाक्षः स्वतृतीयादिस्थानं गच्छतीति ज्ञातव्यं । अयमक्षसंचारक्रमोऽधस्तादुपरितनं विचार्य प्रवर्तनीयः । अक्षस्य संदृष्टिः हंसपदं ॥ ८०॥ अथ नष्टानयनं प्रदर्शयति या विवक्षितप्रमादसंख्या तां प्रथमप्रमादपिण्डप्रमाणेन भक्त्वा शेषमक्षस्थानं भवति । तल्लब्धे रूपं प्रक्षिप्य तत्प्रक्षिप्त उपरितनद्वितीयप्रमादप्रमाणपिण्डेन भक्त्वा तच्छेष मक्षस्थानं भवति । तल्लब्धे रूपं प्रक्षिप्य तृतीयप्रमादप्रमाणपिण्डेन भक्त्वा लब्धं शून्यं तदा तत्र तत्र प्रमादानां अवसानस्थाने एव अक्षस्तिष्ठति । तल्लब्धे एकरूपप्रक्षेपो न कर्तव्यः । अत्रोदाहरणमुच्यते यद्विवक्षितनष्टप्रमादसंख्यामिमां १५ प्रथमप्रमादप्रमाण १५ ७१ और कषाय अन्तको प्राप्त होकर जब पुनः लौटकर आदिमें आते हैं, तब तीसरा अक्ष इन्द्रिय स्पर्शन के स्थान में रसना हो जाता है। उस अक्ष रसना इन्द्रियके तदवस्थ रहते हुए पहला और दूसरा अक्ष पूर्वोक्त क्रमसे संचार करते हुए अन्तको प्राप्त होकर लौटकर जब आदि में आते हैं, तब तीसरे अक्ष रसनाका स्थान घ्राण ले लेती है । इस प्रकार, श्रोत्र इन्द्रिय पर्यन्त अक्ष संचारका क्रम जानकर करना चाहिए । निद्रा और स्नेह एक-एक ही होने से उनका अक्षसंचार नहीं होता । इस प्रकार अक्षसंचारका आश्रय लेकर प्रमादोंका आलाप इस प्रकार होता है - स्त्रीकथालापी, क्रोधी, स्पर्शन इन्द्रियके आधीन पहला आलाप है |१| भक्तकथालापी, क्रोधी, स्पर्शन इन्द्रियके आधीन दूसरा आलाप है |२| राष्ट्रकथालापी, क्रोधी, स्पर्शन इन्द्रिय के आधीन ।३। राजकथालापी, क्रोधी, स्पर्शन इन्द्रियके आधीन |४| पुनः लौटनेपर स्त्रीकथालापी, मानी, स्पर्शनेन्द्रियके आधीन | ५| इत्यादि क्रमसे अक्षसंचार करना चाहिए। इस प्रकार करने - पर स्पर्शन इन्द्रियमें सोलह प्रमादालाप होते हैं । इसी तरह प्रत्येक इन्द्रियके सोलह-सोलह आलाप होने से सब मिलकर अस्सी प्रमादालाप होते हैं ||४०|| २५ आगे नष्टको लानेकी विधि कहते हैं संख्या रखकर उस संख्यावाले आलापको लानेकी विधिका नाम नष्ट है । उसकी विधि इस प्रकार है - विवक्षित प्रमादकी संख्याको प्रथम प्रमाद के पिण्डरूप प्रमाणसे भाग देकर जो शेष रहे, वह अक्षस्थान होता है । उसके लब्धमें एक जोड़कर उसमें ऊपर के दूसरे प्रमादके प्रमाण पिण्डसे भाग देकर जो शेष बचे, उतना अक्षस्थान होता है । उसके लब्धमें एक जोड़कर तीसरे प्रमादके प्रमाणरूप पिण्ड से भाग देनेपर जो शेष बचे, उतना अक्षपद जानना । यदि भाग देने पर कुछ भी शेष नहीं बचता, तो उस उस प्रमादका अन्त स्थानका अक्ष ग्राह्य १. म संभवि सु. । २. म मेगलिदं । Jain Education International For Private & Personal Use Only १० २० ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy