SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संज्वलनसर्वघातिस्पर्धकंगळदयाभावलक्षणमप्प क्षयदोळं द्वादशकषायंगळ्गयुमनुदयप्राप्तसंज्वलननोकषायनिषेकंगळ्गमं सववस्थालक्षणमप्युपशमदोळं संज्वलननोकषायदेशघातिस्पर्धकगळ्गमुदयविवदिं क्षायोपशमिकमप्प सकलसंयममप्पुदु । संज्वलननोकषायदेशघातिस्पर्घकतीवोदयदत्तणिदं संयममलजननप्रमादमुं पुटुगुमावदोंदु कारणदिदमदु कारणविंद प्रमत्तश्चासौ विरतश्च एंवितातं षष्ठगुणस्थानति प्रमत्तसंयतने दु ५ पेळल्पट्ट । एवं विवक्खिदस्स संजमस्स खवोचसमि[य]त्तप्पडप्पायणमेत्तफलत्तादो कधं संजळणणोकसायाणं चरित्तविरोहीणं चारित्तकारयत्तं। (ण) देसघावित्तण सपडिवक्खगुणविष्णिम्मूलणसत्तिविरहियाणमृदयो विज्जमाणो विण सकज्जकारो त्ति संजमहेदत्तण विवक्खियत्तादो। वत्युदो दुकज पडुप्पायेदि । मळजणणपमादो वि य, अवि य इत्यवधारणे। मळजणणपमावो १० चेव जम्हा एवं तम्हा हु पमत्तविरदो सो। तमुवलक्खयदि] । वत्तावत्तपमादे जो वसइ पमत्त संजदो होदि । सयलगुणसीलकलिओ महव्वई चित्तलायरणो ॥३३॥ यस्मात्कारणात संज्वलनसर्वघातिस्पर्धकोदयाभावलक्षणक्षये द्वादशकषायाणामनुदयप्राप्तसंज्वलननोकषायनिषेकाणां च सदवस्थालक्षणोपशमे च संज्वलननोकषायदेशघातिस्पर्धकतीव्रोदयात् संयमो मलजननप्रमादश्च १५ उत्पद्यते तस्मात्कारणात् प्रमत्तश्चासो विरतश्चेति स षष्ठगुणस्थानवी जीवःप्रमत्तसंयत इत्युच्यते । विवक्खिदस्स संजमस्स खओवसमित्तपडुप्पायणमेत्तफलत्तादो कथं संजलणणोकसायाणं चारित्तविरोहीणं चारित्तकारयत्तं? देशघादित्तेण सपडिवक्ख गुणविणिम्मूलणसत्तिविरहियाणमुदयो विज्जमाणोवि ण सकज्जकारओत्ति संजमहेदुत्तेण विवक्खियत्तादो, वत्थुदो दु कज्ज पडुप्पायेदि मलजणणपमादो विय, अवि य इत्यवधारणे। मलजणणपमादो चेव जम्हा एवं तम्हा हु पमत्तविरदो सो । तमुवलक्खदि जिस कारणसे संज्वलनकषायके सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदयाभाव लक्षणरूप क्षय होनेपर और बारह कषायोंका तथा उदयको न प्राप्त संज्वलनकषाय और नोकषायके निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा संज्वलन और नोकषायके देशघाती स्पर्द्धकोंका तीव्र उदय होनेपर संयमके साथ मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद भी उत्पन्न होता है, तिस कारणसे छठे गुणस्थानवर्ती जीवको प्रमत्त और विरत अर्थात् प्रमत्तसंयत कहते हैं। २५ शंका-संज्वलन और नोकषायोंका प्रयोजन तो विवक्षित संयमको क्षायोपशमिक रूपसे उत्पन्न करना है अर्थात् उनके क्षयोपशमसे विवक्षित संयम उत्पन्न होता है, क्योंकि वे चारित्रकी विरोधी हैं । यहाँ गाथामें उन कषायोंको चारित्रका उत्पादक कैसे कहा है ? समाधान-संज्वलन और नोकषाय देशघाती हैं। अतः उनमें अपने प्रतिपक्षी संयम गुणको निर्मूलन करनेकी शक्ति नहीं है। इससे उनका उदय रहते हुए भी अपना कार्य करने में ३० असमर्थ है । अतः गाथा में उन्हें संयमका हेतु उपचारसे कह दिया है । वास्तवमें तो वे अपना कार्य ही करते हैं। वह कार्य है-मलको उत्पन्न करना। 'अपि' अवधारण अर्थमें आया है, अतः इनसे संयममें मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद ही उत्पन्न होता है,इससे उसे प्रमत्तविरत कहते हैं ॥३२।। ___आगे उसीको कहते हैं१. म 1 एतकोष्ठान्तर्गतो पाठो मप्रतो मास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy