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________________ आद्य वक्तव्य (प्रथम संस्करण) सम्भवतया सन् १६६४ या ६५ की बात है। डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने मेरे पास केशववर्णी की कन्नड़ टीका की नागराक्षरों में लिखित 'गोम्मटसार' टीका के प्रारम्भ के कुछ पृष्ठ भेजे और उसकी संस्कृत टीका के आधार पर उसका हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा की। मैंने अनुवाद प्रारम्भ किया, किन्तु वह रोक देना पड़ा; क्योंकि कन्नड़ टीका के शोधन के लिए प्राचीन कन्नड़ भाषा के जानकार विद्वान् की प्राप्ति नहीं हो सकी। इसी से उसका सब कार्य रुका रहा। मैं उनको बार-बार लिखता रहा कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है। हम दोनों ही वयोवृद्ध हो चुके हैं। यदि हम लोगों के रहते हुए ‘गोम्मटसार' की मूल कन्नड़ टीका का प्रकाशन नहीं हआ. तो फिर इसका प्रकाशन नहीं हो सकेगा। किन्तु डॉ. उपाध्ये तो सम्पादन कला के आचार्य थे। जब क उनका मन न भरे. तब तक वह कैसे उस कार्य में आगे बढ सकते थे। जब उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, तो उन्होंने स्वयं इस कार्य को हाथ में लिया और मुझे अनुवाद कार्य करते रहने की प्रेरणा की। उनका सुझाव था कि मैं कार्बन लगाकर बालपेन से अनुवाद की दो प्रतियाँ तैयार करूँ। एक प्रति हम अपने पास रखेंगे और एक प्रेस में दे देंगे। तदनुसार मैंने कार्बन लगाकर अनुवाद की दो प्रतियाँ तैयार की। ___अन्तिम बार उनसे दिल्ली में भेंट हुई। तब बोले थे कि अब मैं मैसूर विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण कर रहा हैं। उसके पश्चात हम मिलकर इसका सम्पादन करेंगे। मैं कनडी देखेंगा. आप संस्कृत देखना। इस तरह दोनों का मिलान करके इसे प्रेस में देंगे। किन्तु उन्होंने तो जीवन से ही अवकाश ले लिया और उसके प्रकाशन का सब भार मेरे ऊपर आ गया। हिन्दी अनुवाद तैयार था, किन्तु कनड़ी भाषा मेरे लिए 'काला अक्षर भेंस बराबर' थी। डॉ. उपाध्ये इसका प्रकाशन जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर से करना चाहते थे। उनके स्वर्गगत हो जाने के पश्चात् ग्रन्थमाला के मन्त्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाह की प्रेरणा और पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्रजी महाराज के आदेश से ग्रन्थमाला सम्पादन का भार भी मुझे ही वहन करना पड़ा, तो कन्नड़ टीका के प्रकाशन पर विचार हुआ। जीवराज ग्रन्थमाला ने डॉ. उपाध्ये के समस्त लेखों का एक संकलन प्रकाशित करने का भार लिया। अतः उसे अपने सीमित साधनों से 'गोम्मटसार' की कन्नड़ टीका के प्रकाशन का भार लेना कठिन प्रतीत हुआ। उसी समय बाहुबली (कुम्भोज) में उपस्थित विद्वानों के सम्मुख, जब कन्नड़ टीका के प्रकाशन की बात आयी, तो सबका यही कहना था कि उसे कौन समझ सकेगा। अतः उसके साथ में उसका संस्कृत रूपान्तर देने का भी विचार हुआ। इससे ग्रन्थ का परिमाण दूना हो गया और व्यय-भार भी बढ़ गया। आचार्य महाराज आदि की भावना हई कि भारतीय ज्ञानपीठ इसके प्रकाशन का उत्तरदायित्व लेवे। मैं उसकी मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला का भी सम्पादक हैं। अतः मैंने तत्काल भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द्र जी को लिखा। उनकी तार से स्वीकृति प्राप्त हुई। और इस तरह भारतीय ज्ञानपीठ के सन्मति मुद्रणालय से इसका प्रकाशन कार्य प्रारम्भ हुआ। कन्नड़ भाषा के नागराक्षरों का कम्पोजिंग उत्तर भारत में कैसे हो सकेगा, प्रूफ देखने की व्यवस्था कैसे हो सकेगी, ये सब चिन्ता करने वाला में एकाकी व्यक्ति था। किन्तु सन्मति मुद्रणालय के व्यवस्थापक, प्रफनिरीक्षक और कुशल कम्पोजीटर श्री महावीरप्रसाद ने मेरी सब चिन्ताएँ दूर कर दी और मुद्रण कार्य बिना किसी बाधा के चालू है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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