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________________ १० गोम्मटसार जीवकाण्ड कन्नड़ भाषा का प्रूफ शोधन केवल प्रेस कापी के आधार पर किया गया है। कन्नड़ भाषा का परिज्ञान न होने से पदविच्छेद आदि भी तदनुसार ही किया गया है। यदि उसमें कुछ अशुद्धियाँ हों, जो अवश्य हो सकती हैं, तो कन्नड़विज्ञ पाठक हमें क्षमा करेंगे। कन्नड़ की प्रेसकापी कब, किसने, किस मूल प्रति के आधार पर की; यह भी हमें ज्ञात नहीं है; जीवकाण्ड की प्रेसकापी के अन्त में 'लेखक-एन. चन्द्र राजेन्द्र विशारद ता. १-६-१६६५ मंगलवार' लिखा है। प्रेसकापी इतने सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई है कि लेखक की लेखनी चूमने की इच्छा होती है। हमारा उन्हें साधुवाद है। संस्कृत टीका के लिए हमने कलकत्ता संस्करण में मुद्रित पाठ को ही अपनाया है। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय के अकलंक सरस्वती भवन की एक हस्तलिखित प्रति से उसका मिलान अवश्य किया है। 'ब' नाम से टिप्पण में उसी के पाठान्तर दिये हैं। उसमें कुछ ऐसे अंश भी मिले जो मुद्रित में नहीं हैं, छपने से छूट गये हैं। उन्हें सानुवाद पूर्ण किया गया है। हिन्दी अनुवाद पं. टोडरमलजी की टीका का शब्दशः रूपान्तर तो नहीं है, किन्तु हमने यथाशक्ति उसका अनुसरण करने का प्रयत्न किया है। उसमें हमारा अपना कछ भी कृतित्व नहीं है। जो कछ है वह पं. टोडरमलजी साहब की ही देन है। हाँ, त्रुटियों के लिए यदि कोई उत्तरदायी है, वह इन पंक्तियों का लेखक है। उसने केवल अपने मित्र डॉ. उपाध्ये की शुभभावना से प्रेरित होकर ही उनके द्वारा छोड़े गये इस महान् उत्तरदायित्व को वहन किया है। आशा है अपनी भावना की इस आंशिक पूर्ति से उनकी स्वर्गगत आत्मा को प्रसन्नता होगी। कलकत्ता से प्रकाशित संस्करण के बहुत समय से अनुपलब्ध होने से 'गोम्मटसार' जैसे ग्रन्थराज के एक महान् संस्करण का अभाव खटकता था। स्व. डॉ. उपाध्ये इसके प्रकाशन से उसकी भी पूर्ति करना चाहते थे। डॉ. उपाध्ये ने ही केशववर्णी की कन्नड़ टीका के अस्तित्व का उद्घाटन किया था, अन्यथा तो सब संस्कृत टीका को ही उनकी मानते थे। उन्होंने यदि बीड़ा न उठाया होता, तो कन्नड़ टीका कभी प्रकाश में नहीं आ सकती थी। और नागराक्षरों में उसका 'रिवर्तन तो असम्भव ही था। अन्त में हम बाहुबली विद्यापीठ के श्री शास्त्रीजी को सर्वप्रथम धन्यवाद देते हैं। उनका नाम हमें स्मरण नहीं है। वे सिद्धान्तज्ञ होने के साथ प्राचीन कन्नड़ के भी ज्ञाता हैं। टीका के प्रारम्भिक कन्नड़ पद्यों का हिन्दी अनुवाद उन्होंने ही किया है और प्रेसकापी का शोधन भी किया है। बाहुबली विद्यापीठ के संचालक श्री पं. माणिकचन्दजी भिसीकर गुरुजी से भी बराबर सहयोग मिलता है। आचार्य श्री समन्तभद्रजी महाराज का शुभाशीर्वाद और सेठ बालचन्द देवचन्द शाह का सहयोग तो हमें प्राप्त है ही। भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी, डॉ. गुलाबचन्द्रजी तथा सन्मति मुद्रणालय का सब परिवार धन्यवाद का पात्र है। खेद है कि साहू शान्तिप्रसादजी आज उपस्थित नहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा से ज्ञानपीठ ने इस महत् भार को उठाया था। उन्हें हम सादर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। कैलाशचिन्द्धान्तसेवा सिद्धान्तसेवक कैलाशचन्द्र शास्त्री ऋषभ जयन्ती वि. सं. २०३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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