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________________ गो० जीवकाण्डे स्वरूपमं प्रदर्शिदपरु मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च अट्ठाणं । एयंतं विवरीयं विणयं संसइदमण्णाणं ॥१५॥ मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्त्वार्थानाम् । एकान्तं विपरीतं विनयं संशयितम५ ज्ञानम् ॥ दर्शनमोहनीयभेदमप्प मिथ्यात्वप्रकृत्युदयदिदं जीवक्के तत्वार्थगळ अश्रद्धानलक्षणं मिथ्यात्वमक्का मिथ्यात्वमुमेकांत-विनय-विपरीत-संशयाज्ञानभेवदि पंचप्रकारमक्कुमल्लि जीवादिवस्तु सर्वथा सदेव सर्वथाऽसदेव सर्वथैकमेव सर्वथानेकमेव एदितिवु मोदलाद प्रतिपक्षनिरपेक्षकांताभिप्रायमेकांतमिथ्यात्वमें बुदक्कु। अहिंसादिलक्षणसद्धर्मफलमप्प स्वर्गादिसुखक्के हिंसाविरूपयागादिफलत्वदिदं जीवक्के प्रमाणसिद्धमप्प मोक्षक्के निराकरणत्वदिदं प्रमाणबाधितमप्पस्त्रोमोक्षास्तित्ववचनदिमितिवुमोदलादमेकांतालंबनदिदं विपरीताभिनिवेशं विपरीतमिथ्यात्वमें बुदक्कु। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनिरपेक्षयिदं गुरुपादपूजाविरूपमप्प विनयदिदमे मुक्ति एंदितु श्रद्धानं वैनयिकमिथ्यात्वमे बुदक्कु। प्रत्यक्षादिप्रमाणगृहीतमप्पथक्के देशकालांतरंगळोळु व्यभिचारसंभवदणिदं परस्पर प्ररूपयति दर्शनमोहनीयभेदमिथ्यात्वप्रकृत्युदयेन जीवस्य अतत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं मिथ्यात्वं स्यात् । तच्च मिथ्यात्वंएकान्तं विपरीतं विनयं संशयितं अज्ञानं चेति पश्चविधं । तत्र जीवादिवस्तु सर्वथा सदेव सर्वथाऽसदेव सर्वथा एकमेव सर्वथा अनेकमेवेत्यादिप्रतिपक्षनिरपेक्षकान्ताभिप्रायः एकान्तमिथ्यात्वं । अहिंसादिलक्षणसद्धर्मफलस्य स्वर्गादिसुखस्य हिंसादिरूपयागादिफलत्वेन, जीवस्य प्रमाणसिद्धस्य मोक्षस्य निराकरणत्वेन, प्रमाणबाधितस्त्रीमोक्षास्तित्ववचनेन इत्याद्यकान्तावलम्बनेन विपरीताभिनिवेशो विपरीत मिथ्यात्वं । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनिरपेक्षतया गुरुपादपूजादिरूपविनयेनैव मुक्तिरेतच्छद्धानं वैनयिकमिथ्यात्वं । प्रत्यक्षादिप्रमाणगहीतार्थस्य देशान्तरे __ आगे पहले कहे चौदह गुणस्थानोंमें से प्रथम निर्दिष्ठ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं-दर्शनमोहनीयके भेद मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीवके मिथ्यात्व होता है, जिसका २५ लक्षण अतत्त्वश्रद्धान है। वह मिथ्यात्व एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका है। उनमें से जीवादि वस्तु सर्वथा सत् ही हैं या सर्वथा असत् ही हैं, या सर्वथा एक ही हैं या सर्वथा अनेक ही हैं,इत्यादि प्रतिपक्षसे निरपेक्ष एकान्त अभिप्रायको एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं । अहिंसा आदि लक्षणवाले समीचीन धर्मका फल स्वर्ग आदिका सुख है, उसको हिंसा आदि रूप यज्ञका फल मानना, जीवके प्रमाण सिद्ध मोक्षका निरा१. करण करना, प्रमाणसे बाधित स्त्री मुक्तिका अस्तित्व बतलाना, इत्यादि एकान्तका अवलम्बन करते हुए जो विपरीत अभिनिवेश है,वह विपरीत मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्रकी अपेक्षा न करके गुरुके चरणोंकी पूजा आदि रूप विनयके द्वारा ही मुक्ति होती है, इस प्रकारका श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणसे गृहीत अर्थका १. म मक्कुमेकांत । २. क°वस्तुसर्वधाऽसदेव सर्वथैकमेध । ३. म नेकमेदित्यादि प्रति । ४ मदिदमित्य३५ घनेकालं, कमोदलादनेकालं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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