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४२२ तत्त्वार्थवार्तिक
[ ४२ १४ एक गुणरूपसे संपूर्ण वस्तुधर्मोका अखंडभावसे ग्रहण करना सकलादेश है । जिस समय एक अभिन्न वस्तु अखंडरूपसे विवक्षित होती है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मोका अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पूरीकी पूरी एक शब्दसे कही जाती है यही सकलादेश है। द्रव्याथिकनयसे धर्मोंमें अभेद है तथा पर्यायाथिककी विवक्षामें भेद होनेपर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है।
१५ इस सकलादेशमें प्रत्येक धर्मकी अपेक्षा सप्तभंगी होती है। १ स्यात् अस्त्येव जीवः २ स्यात् नास्त्येव जीवः ३ स्यात् अववतव्य एव जीव: ४ स्यात् अस्ति च नास्ति च ५ स्यात् अस्ति च अवक्तव्यश्च ६ स्यात् नास्ति च अवक्तव्यश्च ७ स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च । कहा भी है---
___"प्रश्नके वशसे सात ही भंग होते हैं। वस्तु सामान्य और विशेष उभय धर्मोंसे युक्त हैं।"
___ 'स्यात् अस्त्येव जीवः' इस वाक्यमें जीव शब्द विशेष्य है द्रव्यवाची है और 'अस्ति' शब्द विशेषण है गुणवाची है। उनमें विशेषण विशेष्यभाव द्योतनके लिए 'एव' का प्रयोग है। इससे इतर धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग होता है, अतः उन धर्मोका सद्भाव द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है। 'स्यात्' शब्द तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। इसके अनेकान्त विधि विचार आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं परन्तु विवक्षावश यहाँ 'अनेकान्त" अर्थ लिया जाता है। यद्यपि 'स्यात्' शब्दसे सामान्यतया अनेकान्तका द्योतन हो जाता है फिर भी विशेषार्थी विशेष शब्दका प्रयोग करते हैं जैसे 'वृक्ष' कहनेसे धव खदिर आदिका ग्रहण हो जाने पर भी धव खदिर आदिके इच्छुक उन-उन शब्दोंका प्रयोग करते हैं । अथवा 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है । जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्दके द्वारा कहे गये अर्थका ही द्योतन कर सकता है अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्मकी सूचनाके लिए इतर शब्दोंका प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-यदि स्यात् अस्त्येव जीव:' यह वाक्य सकलादेशी है तो इसीसे जीवद्रव्यके सभी धर्मोंका संग्रह हो ही जाता है, तो आगेके भंग निरर्थक हैं ?
उत्तर-गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भंगों की सार्थकता है। द्रव्यार्थिक की प्रधानता तथा पर्यायाथिक की गौणतामें प्रथम भंग सार्थक है और द्रव्याथिक की गौणता और पर्यायाथिक की प्रधानतामें द्वितीय भंग । यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोगकी है, वस्तु तो सभी भंगोंमें पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्दसे कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह यहाँ अप्रधान है। तृतीय भंगमें युगपत् विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं क्योंकि दोनोंको प्रधान भावसे कहने वाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंगमें क्रमशः उभय प्रधान होते हैं । यदि अस्तित्वैकान्तवादी 'जीव एव अस्ति' ऐसा अवधारण करते हैं तो अजीवके नास्तित्वका प्रसंग आता है अतः 'अस्त्येव' यहीं एवकार दिया जाता है । 'अस्त्येव' कहनेसे पुद्गलादिकके अस्तित्वसे भी जीवका अस्तित्व व्याप्त हो जाता है अतः जीव और पुद्गलमें एकत्वका प्रसंग होता है । 'अस्तित्व सामान्यसे जीवका सम्बन्ध होगा अस्तित्व विशेषसे नहीं, जैसे 'अनित्यमेव कृतकम्' कहनेसे अनित्यत्वके अभावमें कृतकत्व नहीं होता ऐसा अवधारण करने पर भी सब प्रकारके अनित्यत्वसे सब प्रकारके कृतकस्वकी व्याप्ति नहीं होती किन्तु
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