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________________ ४४२] हिन्दी-सार अनित्यत्व सामान्यसे ही होती है न कि रथ घट पट आदिके अनित्यत्व विशेषसे ।' यह समाधान प्रस्तुत करने पर तो यही फलित होता है कि आप स्वयं अवधारणको निष्फलता स्वीकार कर रहे हैं । 'स्वगत विशेषसे अनित्यत्व है' इसका स्पष्ट अर्थ है कि परगत विशेषसे अनित्यत्व नहीं है। फिर तो 'अनित्यं कृतकम्' ऐसा विना अवधारणका वाक्य कहना चाहिए। ऐसी दशामें अनित्यत्वका अवधारण न होनेसे नित्यत्वका भी प्रसंग प्राप्त होता है। इसी तरह आप यदि 'अस्तित्व सामान्यसे जीव 'स्यादस्ति' है पुद्गलादिगत अस्तित्व विशेषसे नहीं' यह स्वीकार करते हैं तो यह स्वयं मान रहे हैं कि दो प्रकारका अस्तित्व है-एक सामान्य अस्तित्व और दूसरा विशेष अस्तित्व। ऐसी दशामें सामान्य अस्तित्वसे स्यादस्ति और विशेष अस्तित्वसे स्यान्नास्ति होने पर अवधारण निष्फल हो ही जाता है । सब प्रकारसे अस्तित्व स्वीकृत होनेपर ही नास्तित्वके निराकरणसे ही अवधारण सार्थक हो सकता है। नियम न रहने पर पुद्गलादिके अस्तित्वसे भी 'स्यादस्ति' की प्राप्ति होती है अतः एकान्तवादीको अवधारण मानना ही होगा और ऐसी स्थितिमें पूर्वोक्त दोष आता है। 'जो अस्ति है वह अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावसे, इतर द्रव्यादिसे नहीं क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं । जैसे घड़ा पार्थिव रूपसे, इस क्षेत्रसे, इस कालकी दृष्टिसे तथा अपनी वर्तमान पर्यायोंसे 'अस्ति' है अन्यसे नहीं क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं।' इस समाधानसे ही फलित होता है कि घड़ा स्यादस्ति और स्यानास्ति है । यदि नियम न माना गया तो वह घडा ही नहीं हो सकता क्योंकि सामान्यात्मकताके अभावमें विशेषरूपता भी नहीं टिक सकती, अथवा अनियत दव्यादिरूप होनेसे वह घड़ा ही नहीं रह सकता किंतु सर्वरूप होनेसे महा सामान्य बन जायगा । यदि घड़ा पार्थिवत्वकी तरह जलादि रूपसे भी अस्ति हो जाय तो जलादि रूप भी होनेसे वह एक सामान्य द्रव्य बन जायगा न कि घड़ा । यदि इस क्षेत्रकी तरह अन्य समस्त क्षेत्रोंमें भी घड़ा अस्ति हो जाय तो वह घड़ा नहीं रह पायगा किन्तु आकाश बन जायगा । यदि इस कालकी तरह अतीत अनागत कालसे भी वह 'अस्ति' होतो भी घड़ा नहीं रह सकता किन्तु त्रिकालानुयायी होनेसे मृद् द्रव्य बन जायगा, फिर तो जिस प्रकार इस देश काल रूपसे हमलोगोंके प्रत्यक्ष है और अर्थक्रियाकारी है उसीतरह अतीत अनागतकाल तथा सभी देशोंमें उसकी प्रत्यक्षता तथा तत्सम्बन्धी अर्थक्रियाकारिता होनी चाहिये । इसी तरह जैसे वह नया है उसी तरह पुराने या सभी रूप रस गन्ध स्पर्श संख्या संस्थान आदिकी दृष्टिसे भी 'अस्ति' हो तो वह घड़ा नहीं रह जायगा किन्तु सर्वव्यापी होनेसे महासत्ता बन जायगा । इसी तरह मनुष्य जीव भी स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावकी दृष्टि से ही 'अस्ति' है अन्यरूपों से नास्ति है। यदि मनुष्य अन्य रूपसे भी 'अस्ति' हो जाय तो वह मनुष्य ही नहीं रह सकता, महासामान्य हो जायगा । इसी तरह अनियत क्षेत्र आदि रूपसे 'अस्ति' मानने में अनियतरूपता का प्रसंग आता है। स्वसद्भाव और पर-अभाव के अधीन जीव का स्वरूप होनेसे वह उभयात्मक है। यदि जीव परसत्ताके अभावकी अपेक्षा न करे तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायगा। इसी तरह परसत्ताके अभावकी अपेक्षा होने पर भी स्वसत्ताका सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही नहीं हो सकेगा, जीव होनेकी बात तो दूर ही रही। अतः परका अभाव भी स्वसत्ता सद्भावसे.ही वस्तुका स्वरूप बन सकता है। जैसे अस्तित्व धर्म अस्तित्व रूपसे ही है नास्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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