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________________ ४१४२ हिन्दी-सार ४२१ रूपमें उत्पन्न होता है जलरूपमें नहीं, देश दृष्टिसे यहाँ उत्पन्न होता है पटना आदिमें नहीं, कालदृष्टिसे वर्तमानकालमें उत्पन्न होता है अतीत-अनागतमें नहीं, भावदृष्टिसे बड़ा उत्पन्न होता है छोटा नहीं । यह उत्पाद अन्य सजातीय घट, किंचित् विजातीय घट, पूर्ण विजातीय पटादि तथा द्रव्यान्तर आत्मा आदिके अनन्त उत्पादोंसे भिन्न है अतः उतने ही प्रकारका है। इसी प्रकार उस समय उत्पन्न नहीं होनेवाले द्रव्योंकी ऊपर नीची तिरछी लम्बी चौड़ी आदि अवस्थाओंसे भिन्न वह उत्पाद अनेक प्रकारका है। अनेक अवयववाले मिट्टीके स्कन्धसे उत्पन्न होनेके कारण भी उत्पाद अनेक प्रकारका है। इसी तरह जल-धारण आहरण हर्ष भय शोक परिताप आदि अनेक अर्थक्रियाओंमें निमित्त होनेसे उत्पाद अनेक तरहका है । उसी समय उतने ही प्रतिपक्षभूत व्यय होते हैं । जब तक पूर्व पर्यायका विनाश नहीं होगा तब तक नूतनके उत्पादकी संभावना नहीं है । उत्पाद और विनाशकी प्रतिपक्षभूत स्थिति भी उतने ही प्रकारकी है। जो स्थित नहीं है उसके उत्पाद और व्यय नहीं हो सकते । 'घट' उत्पन्न होता है' इस प्रयोगको वर्तमान तो इसलिए नहीं मान सकते कि अभी तक घड़ा उत्पन्न ही नहीं हुआ है, उत्पत्तिके बाद यदि तुरन्त विनाश मान लिया जाय तो सद्भावको अवस्थाका प्रतिपादक कोई शब्द ही प्रयुक्त नहीं होगा, अतः उत्पादमें भी अभाव और विनाशमें भी अभाव, इस तरह पदार्थका अभाव ही होनेसे तदाश्रित व्यवहारका लोप हो जायगा। अतः पदार्थमें उत्पद्यमानता उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थाएँ माननी ही होंगी। इसी तरह एक जीवमें भी द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयकी विषयभूत अनन्त शक्तियाँ तथा उत्पत्ति विनाश स्थिति आदि रूप होनेसे अनेकान्तात्मकता समझनी चाहिए। ६११ अन्वय व्यतिरेक रूप होनेसे भी। जैसे एक ही घड़ा सत् अचेतन आदि सामान्य रूपसे अन्वयधर्मका तथा नया पुराना आदि विशेष रूपसे व्यतिरेक धर्मका आधार होता है उसी तरह आत्मा भी सामान्य और विशेष धर्मोंकी अपेक्षा अन्वय और व्यतिरेकात्मक है। अनुगताकार बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोगके विषयभूत स्वास्तित्व आत्मत्व ज्ञातृत्व द्रष्टुत्व कर्तृत्व भोक्तृत्व अमूर्तत्व' असंख्यातप्रदेशत्व अवगाहनत्व अतिसूक्ष्मत्व अगुरुलघुत्व अहेतुकत्व अनादि सम्बन्धित्व ऊर्ध्वगतिस्वभाव आदि अन्वय धर्म हैं। व्यावृत्ताकार बुद्धि और शब्द प्रयोगके विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति स्थिति विपरिणाम वृद्धि ह्रास क्षय विनाश गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान दर्शन संयम लेश्या सम्यक्त्व आदि व्यतिरेक धर्म हैं। १२-१३ इस अनेकान्तात्मक जीवका कथन शब्दोंसे दो रूपमें होता है-एक ऋमिक और दूसरा योगपद्य रूपसे । तीसरा कोई प्रकार नहीं है। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं उस समय एक शब्दमें अनेक अर्थों के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मोकी कालादिककी दृष्टिसे अभेद विवक्षा होती है तब एक भी शब्दके द्वारा एकधर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोका अखंड भावसे युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नयरूप हैं और सकलादेश प्रमाण रूप। कहा भी है-सकलादेश प्रमाणाधीन है और विकलादेश नयाधीन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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