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________________ ४२० तत्वार्थवार्तिक (કાર होती है। अथवा सत्त्व ज्ञेयत्व द्रव्यत्व अमूर्तत्व अतिसूक्ष्मत्व अवगाहनत्व असंख्येयप्रदेशत्व अनादिनिधनत्व और चेतनत्व आदिकी दृष्टिसे जीव अनेक रूप है। ५ अनेक अब्द और अनेक ज्ञानका विषय होनेसे । जिस पदार्थमें जितने शब्दों का प्रयोग होता है उसमें उतनी ही वाच्य-शक्तियाँ होती हैं तथा वह जितने प्रकारके ज्ञानोंका विषय होता है उसमें उतनी ही ज्ञेय शक्तियाँ होती हैं। शब्द प्रयोगका अर्थ है प्रतिपादन, क्रिया । उसके साधन दोनों ही हैं-शब्द और अर्थ। एक ही घटमें घट पार्थिव मातिक-मिट्टीसे बना हुआ, सन्, ज्ञेय, नया, बड़ा आदि अनेकों शब्दोंका प्रयोग होता है तथा इन अनेक ज्ञानोंका विषय होता है । अतः जैसे घड़ा अनेकान्त रूप है । उसी तरह आत्मा भी अनेक धर्मात्मक है । ६ अनेक शक्तियोंका आधार होनेसे। जैसे घी चिकना है, तृप्ति करता है, उपबृहण करता है अतः अनेक शक्तिवाला है अथवा, जैसे घड़ा जल-धारण आहरण आदि अनेक शक्तियोंसे युक्त है उसी तरह आत्मा भी द्रव्य क्षेत्र काल और भावके निमित्तसे अनेक प्रकारकी वैभाविक पर्यायोंकी शक्तियोंको धारण करता है। ६७ जिस प्रकार एक ही घड़ा अनेक सम्बन्धियोंकी अपेक्षा पूर्व पश्चिम, दूर पास, नया पुराना, समर्थ असमर्थ, देवदत्त कृत चैत्रस्वामिक, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभागादिके भेदसे अनेक व्यवहारोंका विषय होता है उसी तरह अनन्त सम्बन्धियोंकी अपेक्षा आत्मा भी उन उन अनेक पर्यायोंको धारण करता है । अथवा, जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियोंकी अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनेक भेदोंको प्राप्त होती है उसी तरह जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणोंके सम्बन्धसे जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुंडली आदि अनेक पर्यायोंको धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुलीमें मध्यमाकी अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिकाकी अपेक्षा नहीं है, प्रत्येकपर रूपका भेद जुदा-जुदा है। मध्यमाने प्रदेशिनीमें ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाणमें भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वतः ही था, अन्यथा मध्यमाके अभावमें भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी । तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणोंकी अपेक्षा उन उन रूपसे व्यवहारमें आता है। . ६८ जिस प्रकार एक ही घड़ेके रूपादि गुणोंमें अन्यद्रव्योंके रूपादि गुणोंकी अपेक्षा एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात आदि रूपसे तरतम भाव व्यक्त होता है और इसलिए वह अनेक है उसी तरह जीवमें भी अन्य आत्माओंकी अपेक्षा क्रोधादिके अविभाग प्रतिच्छेदोंकी तरतमता होती है। अन्य सहकारियोंकी अपेक्षा वैसे क्रोधादि परिणाम अभिव्यक्त होते रहते है। ६९ जैसे मिट्टी आदि द्रव्य प्रध्वंसरूप अतीतकाल, संभावनारूप भविष्यत् काल तथा क्रिया सातत्यरूप वर्तमानकालके भेदसे उन उन कालोंमें अनेक पर्यायोंको प्राप्त होता है, उसीतरह जीव भी अनादि अतीतकाल, संभावनीय अनागत और वर्तमान अर्थपर्याय व्यञ्जनपर्यायांसे अनन्तरूपको धारण करता है। यदि वर्तमान मात्र माना जाय तो पूर्व और उत्तरकी रेखा न होनेसे वर्तमानका भी अभाव हो जायगा। १० अनन्तकाल और एककालमें अमन्त प्रकारके उत्पाद व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होनेके कारण आत्मा अनेकान्तरूप है। जैसे घड़ा एक कालमें द्रव्य दृष्टिसे पार्थिव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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