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________________ ४१३६-४२] हिन्दी-सार ४१९ च शब्दसे पूर्वसूत्रमें सूचित क्रमका सम्बन्ध हो जाता है। अतः रत्नप्रभाकी जो एक सागर उत्कृष्ट स्थिति है वह शर्कराप्रभामें जघन्य होती है। इसी प्रकार आगे भी। दशवर्षसहस्त्राणि प्रथमायाम् ॥३६॥ प्रथम नरककी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है। भवनेषु च ॥३७॥ भवनवासियोंकी भी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है। व्यन्तराणां च ॥३८॥ इसी तरह व्यन्तरोंकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है। व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति पहिले इसीलिए नहीं कही गई कि यदि उत्कृष्ट स्थिति पहिले कही जाती तो जघन्य स्थितिके निर्देशके लिए फिरसे 'दशवर्षसहस्राणि सूत्र बनाना पड़ता। परा पल्योपममधिकम् ॥३६॥ व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्यसे कुछ अधिक है। ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ ज्योतिषियोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य है। तदष्टभागोऽपरा ॥४१॥ ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थिति पल्यके आठवें भाग प्रमाण है। ११-९ चन्द्रकी उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य, सूर्यकी एक एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य, शुक्रकी एक सौ वर्ष अधिक एक पल्य तथा वृहस्पतिकी पूर्ण एक पल्य है । शेष बुध आदि ग्रहोंकी और नक्षत्रोंकी आधे पल्य प्रमाण स्थिति है । तारागण की पल्यका चौथा भाग उत्कृष्ट स्थिति है। तारा और नक्षत्रोंकी जघन्य स्थिति पल्यके आठवें भाग है । सूर्य आदिकी जघन्य स्थिति पल्यके चौथाई भागप्रमाण है। लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥४२॥ 6 १ सभी लौकान्तिकोंकी दोनों प्रकारको स्थिति आठ सागर प्रमाण है। १२ जीव पदार्थका व्याख्यान हुआ। ६३ वह एक होकर भी अनेकात्मक है क्योंकि ७४ वह अभावसे विलक्षण है। 'अभूत' 'नहीं है' आदि अभावमें कोई भेद नहीं पाया जाता पर भावमें तो अनेक धर्म और अनेक भेद पाये जाते हैं । भावमें ही जन्म, सद्भाव, विपरिणाम, वृद्धि , अपक्षय और विनाश देखे जाते हैं। बाह्य आभ्यन्तर दोनों निमित्तोंसे आत्मलाभ करना जन्म है, जैसे मनुष्यगति आदिके उदयसे जीव मनुष्य पर्यायरूपसे उत्पन्न होता है । आयु आदि निमित्तोंके अनुसार उस पर्यायमें बने रहना सद्भाव या स्थिति है। पूर्वस्वभावको कायम रखते हुए अधिकता हो जाना वृद्धि है । क्रमशः एक देशका जीर्ण होना अपक्षय है । उस पर्यायकी निवृत्तिको विनाश कहते हैं। इस तरह पदार्थोंमें अनन्तरूपता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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