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तत्त्वार्थ वार्तिक
त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥ ३१ ॥
सातका तीन आदिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए । 'तु' शब्द सूचित करता है कि 'अधिक' का सम्बन्ध सहस्रार तक ही करना चाहिए । अर्थात् - ब्रह्म ब्रह्मोत्तरमें कुछ अधिक दश सागर, लान्तव कापिष्ठ में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र महाशुक्रमें कुछ अधिक सोलह सागर, शतार सहस्रारमें कुछ अधिक १८ सागर, आनत प्राणतमें २० सागर, आरण अच्युतमें २२ सागर उत्कृष्ट स्थिति है । इस 'तु' शब्दसे ही 'अधिक' का अन्वय सहस्रार स्वर्ग तक ही होता है । आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ ३२ ॥
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११-४ ' अधिक ग्रहण' की अनुवृत्ति आ रही है अतः 'एक एक अधिक' यह अर्थ कर लेना चाहिए । ग्रैवेयक और विजयादि का पृथक् ग्रहण करने से अनुदिशों का संग्रह हो जाता है । 'नव' शब्द देनेसे प्रत्येक में 'एक अधिक' का सम्बन्ध हो जाता है । 'सर्वार्थसिद्ध' का पृथक् ग्रहण करनेसे सूचित होता है कि उसमें एक ही उत्कृष्ट स्थिति है, विजयादिकी तरह जघन्य और उत्कृष्ट विकल्प नहीं है । तात्पर्य यह कि अधो ग्रैवेयकों में पहिले ग्रैवेयकमें २३ सागर, दूसरेमें २४ सागर तथा तीसरेमें २५ सागर; मध्यम ग्रैवेयक के प्रथम ग्रैवेयक में २६ सागर, दूसरेमें २७ तथा तृतीयमें २८; उपरिम ग्रैवेयक के प्रथम ग्रैवेयकमें २९ सागर, द्वितीयमें ३० तथा तृतीयमें ३१ सागर उत्कृष्ट स्थिति है । अनुदिश विमानों में ३२ तथा विजयादि और सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर हैं । सर्वार्थसिद्धि में केवल उत्कृष्ट ही स्थिति ३३ सागर है ।
[ ४३१-३५
अपरा पल्योपममधिकम् ||३३||
सौधर्म और ऐशान स्वर्गकी जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्य है । आगे सूत्रों में भवनवासी आदि तथा सानत्कुमार आदिकी जघन्य स्थिति बताई जायगी । अतः ज्ञात होता है कि इस सूत्र में सौधर्म और ऐशानकी ही स्थिति बतायी जा रही है । परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा ॥ ३४ ॥
पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति आगे आगे जघन्य हो जाती है ।
११- ३ 'अधिक' की अनुवृत्ति हो जाती है । सौधर्म और ऐशानकी जो दो सागरसे कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति है वही कुछ अधिक होकर सानत्कुमार और माहेन्द्र में जवन्य हो जाती है । सानत्कुमार और माहेन्द्रकी जो कुछ अधिक सात सागर उत्कृष्ट स्थिति है वही कुछ अधिक होकर ब्रह्म ब्रह्मोत्तरमें जघन्य हो जाती है । सर्वार्थसिद्धका पृथक् ग्रहण करनेसे यही सूचित होता है कि यह जघन्य स्थितिका क्रम विजयादि तक ही चलता है । यद्यपि पूर्वशब्दसे 'पहिलेकी स्थिति' का ग्रहण हो सकता है फिर भी चूँकि पूर्वशब्दका प्रयोग 'मथुरासे पूर्वमें पटना है' इत्यादि स्थलों में व्यवहितमें भी देखा जाता है अतः 'अव्यवहित' का सम्बन्ध करनेके लिए 'अनन्तर' शब्दका प्रयोग किया गया है । सरल उपायसे नारकियोंकी जघन्य स्थितिका निरूपण -
नारकाणां च द्वितीयादिषु ||३५||
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