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________________ ४।२७-३० ] हिन्दी-सार ४१७ उत्तर - आगममें उक्त कथन प्रश्न विशेषकी अपेक्षासे है । गौतमने भगवान्से यह प्रश्न किया कि विजयादिकमें देव मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर कितनी गति आगति विजयादिकमें करते हैं ? इसके उत्तरमें भगवान्ने व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडक हा आगतिकी दृष्टिसे जघन्यसे एक भव तथा गति आगतिकी अपेक्षा उत्कृष्टसे दो भव । सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होनेवाले मनुष्य - पर्यायमें आते हैं तथा उसी पर्यायसे मोक्षलाभ करते हैं । विजयादिके देव लौकान्तिककी तरह एकभविक नहीं हैं किन्तु द्विभविक हैं । इसमें बीच में यदि कल्पान्तरमें उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है । तिर्यञ्चों का वर्णन - औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ औपपादिक - देव और नारकी तथा मनुष्योंके सिवाय अन्य संसारी तिर्यञ्च हैं । यद्यपि मनुष्य शब्दका अल्पस्वरवाला होनेसे पहिले प्रयोग होना चाहिए था परन्तु चूँकि औपपादिकों में अन्तर्गत देव स्थिति प्रभाव आदिकी दृष्टिसे बड़े और पूज्य हैं अतः औपपादिक शब्दका ही पूर्वप्रयोग किया गया है । 8 १-२ औपपादिक - देव नारकी और मनुष्योंसे बचे शेष प्राणी तिर्यञ्च हैं । संसारी जीवोंक प्रकरण होनेसे सिद्धों में तिर्यञ्चत्वका प्रसङ्ग नहीं आता । 8 ३-७ तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना - बोझा ढोनेके लायक । कर्मोदयसे जिनमें " तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं। इसके त्रस स्थावर आदि भेद पहिले बतलाये जा चुके हैं । तिर्यञ्चों का आधार सर्वलोक है वे देवादिकी तरह निश्चित स्थानोंमें नहीं रहते । तिर्यञ्च सूक्ष्म और बादरके भेदसे दो प्रकारके हैं। सूक्ष्म पृथिवी अप् तेज और वायुकायिक सर्वलोकव्यापी हैं पर बादर पृथिवी अप् तेज वायु विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लोकके कुछ भागों में पाये जाते हैं । चूंकि तीनों लोक ही सूक्ष्म तिर्यञ्चोंका आधार है अतः तीन लोकके वर्णनके बाद ही यहाँ उनका निर्देश किया है, द्वितीय अध्यायमें नहीं, और यहीं शेष शब्दका यथार्थ बोध भी हो सकता है क्योंकि नारक देवों और मनुष्योंके निर्देशके बाद ही शेषका अर्थ समझ में आ सकता है । देवोंकी स्थिति स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्धहीनमिताः ॥ २८ ॥ असुरकुमारोंकी एक सागर, नागकुमारोंकी तीन पल्य, सुपर्णकुमारोंकी २॥ पल्य, ariat २ पल्य तथा शेष छह कुमारोंकी १॥ पल्य उत्कृष्ट स्थिति हैं । सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके ॥ २६ ॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें कुछ अधिक दो सागर स्थिति है । अधिकार सहस्रार स्वर्गतक चालू रहेगा । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥ सागर और अधिक पदका अनुवर्तन पूर्वसूत्रसे हो जाता है । अतः सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में कुछ अधिक सात सागर स्थिति समझनी चाहिए । ५३ Jain Education International 'अधिके' यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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