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________________ ४१६ तस्वार्थवार्तिक [ ४ २६ इनकी संख्या इस प्रकार है - सारस्वत - ७००, आदित्य ७००, वह्नि, ७००७, अरुण ७००७, गर्दतोय ९००९, तुषित ९००९, अव्याबाध ११०११, अरिष्ट ११०११, अग्न्याभ ७००७, सूर्याभ ९००९, चन्द्राभ ११०११, सत्याभ १३०१३, श्रेयस्कर १५०१५, क्षेमंकर १७०१७, वृषभेष्ट १९०१९, कामवर २१०२१, निर्माणरज २३०२३, दिगन्तरक्षित २५०२५, आत्मरक्षित २७०२७, सर्वरक्षित २९०२९, मरुत् ३१०३१, वसु ३३०३३, अश्व ३५०३५, विश्व ३७०३७ । इस तरह इन चालीस लोकान्तिकों की समग्र संख्या ४०७८६ । ये सभी स्वतन्त्र हैं । विषयविरक्त होनेसे देवर्षि कहे जाते हैं। ये चौदह पूर्वके पाठी, ज्ञानोपयोगी, संसार उद्विग्न, अनित्य आदि भावनाओंको भानेवाले, अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं । तीर्थङ्करों की दीक्षाके समय उन्हें प्रतिबोध देने आते हैं । नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ असंख्यात हैं । उन्हीं के उदयसे संसारी जीवोंके अनेक प्रकारकी शुभ-अशुभ संज्ञाएँ होती हैं । यह अष्टकर्ममय संसार सामान्यतया भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीवों के अनादि अनन्त है । जो मोहका उपशम या क्षय करनेके लिए उद्यत हैं उन सम्यग्दृष्टियों के उत्कृष्टसे ७-८ भव तथा जघन्यसे २-३ भवमें संसारका उच्छेद हो जाता है । जो सम्यक्त्वसे च्युत हो गए हैं उनका कोई नियम नहीं । विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २६ ॥ ११ आदि शब्द प्रकारार्थक है, अर्थात् विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और अनुदिश विमानों में द्विचरम होते हैं । इनमें एकप्रकारता इसलिए है कि सभी पूर्व सम्यग्दृष्टि और अहमिन्द्र हैं । सर्वार्थसिद्धि नामसे ही सूचित होता है कि वहाँके देव सर्वोत्कृष्ट हैं और एकचरम हैं । 1 २-४ द्विचरमत्व मनुष्यदेहकी अपेक्षा है, अर्थात् विजयादिकसे च्युत होकर सम्यग्दर्शनको कायम रखते हुए मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं फिर संयमकी आराधना कर विजयादिकमें उत्पन्न होते हैं । फिर च्युत होकर मनुष्यभव धारण कर मुक्त हो जाते हैं । इस तरह मनुष्यभवकी अपेक्षा द्विचरमत्व है वैसे तो दो मनुष्यभव तथा एक देवभव मिलाकर त्रिचरम गिने जा सकते हैं । चूंकि मनुष्य पर्यायसे ही मोक्षलाभ होता है अतः मनुष्यदेहकी अपेक्षा ही चरमत्व गिना जा सकता है । यद्यपि चरम शब्द अन्त्यवाची है अतः एक ही चरम हो सकता है परन्तु चरमके पासका अव्यवहित पूर्वका मनुष्यभव भी उपचारसे चरम कहा जा सकता है । देवभवके व्यवधान अव्यवधानका विचार मोक्षके प्रकरण में नहीं होता क्योंकि मोक्ष मनुष्य पर्यायसे ही होता है । १५ प्रश्न - आगम में अन्तर प्रकरणमें अनुदिश अनुत्तर और विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित विमानवासियोंका जघन्य अन्तर वर्ष पृथक्त्व तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक दो सागर बताया है । इसका यह अर्थ है कि मनुष्यों में उत्पन्न होकर आठ वर्ष संयमकी आराधना कर अन्तर्मुहूर्त में फिर विजयादिमें उत्पन्न हो जाते हैं इस तरह जघन्यसे वर्ष पृथक्त्व अन्तर है। कुछ विजयादिकसे च्युत होकर मनुष्यभवसे सौधर्म ऐशान कल्प में जाते हैं फिर मनुष्य होकर विजयादिमें जाते हैं इनके दो सागरसे कुछ अधिक उत्कृष्ट अन्तर होता है । इस अपेक्षा मनुष्य के तीन भव हो जानेसे द्विचरमत्व नहीं रहता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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