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________________ ३६६ तत्त्वार्थवार्तिक [३३३८ मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। १-३ लौकिक और लोकोत्तरके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका है। लौकिक मान छह प्रकारका है-मान, उन्मान, अवमान, गणना, प्रतिमान और तत्प्रमाण । मान दो प्रकारका है-रसमान और बीजमान । घी आदि तरल पदार्थों को मापनेकी छटंकी आदि रसमान हैं और धान्य नापनेके कुडव आदि बीजमान हैं। तगर आदि द्रव्योंको ऊपर उठाकर जिनसे तौला जाता है वे तराजू आदि उन्मान हैं। खेत नापनेके डंडा आदि अवमान हैं। एक दो तीन आदि गणना है। पूर्वकी अपेक्षा आगेके मानोंकी व्यवस्था प्रतिमान है जैसेचार मंहदीके फलोंका एक सफेद सरसों, सोलह सरसोंका एक उड़द, दो उड़दकी एक गुमची, दो गुमचीका एक रूप्यमाष (सफेद उड़द), दो रूप्यमाषका एक धरण, २॥ धरण का एक सुवर्ण कंस, चार कंसका एक पल, एक सौ पलकी तुला, तीन पल और आधे कंस का एक कुडव, चार कुडवका एक प्रस्थ, चार प्रस्थका एक आढक, चार आढकका एक द्रोण, सोलह द्रोणकी एक खारी, बीस खारीका एक वाह, इत्यादि मगध देशका प्रमाण है। मणि आदिकी दीप्ति, अश्व आदिकी ऊंचाई गुण आदिके द्वारा मूल्य निर्धारण करनेके लिाननाणका उपयोग होता है । जैसे मणिकी प्रभा ऊपर जहाँ तक जाय उतनी ऊंचाई तकका सुवर्णका ढेर उसका मूल्य होगा। घोडा जितना ऊंचा हो-उतनी ऊंची सुवर्ण मुद्राएं घोड़ेका मूल्य । अथवा जितनेमें रत्नके मालिकको सन्तोष हो उतना रत्नका मूल्य होता है। आदि। ४ लोकोतर प्रमाण द्रव्य क्षत्र काल और भावके भेदसे चार प्रकार का है। द्रव्यप्रमाण एक परमाणुसे लेकर महास्कन्धपर्यन्त, क्षेत्र प्रमाण एक प्रदेशसे लेकर सर्व लोकपर्यन्त, और काल प्रमाण एक समयसे लेकर अनन्त कालपर्यन्त जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन तीन प्रकारका है । भाव प्रमाण अर्थात् ज्ञान दर्शन उपयोग । वह जघन्य सूक्ष्म निगोदके उत्कृष्ट केवलीके और मध्यम अन्य जीवोंके होता है। ५ द्रव्यप्रमाण संख्या और उपमाके भेदसे दो प्रकारका है। संख्या प्रमाण संख्येय असंख्येय और अनन्तके भेदसे तीन प्रकारका है। संख्येय प्रमाण जघन्य उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारका है। असंख्यात और अनन्त नौ नौ प्रकारके हैं। संख्येय प्रमाणके ज्ञानके लिए जम्बूद्वीपके समान एक लाख लम्बे चौड़े और एक योजन गहरे शलाका प्रतिशलाका महाशलाका और अनवस्थित नामके चार कुण्ड बुद्धिसे कल्पित करने चाहिए । अनवस्थित कुण्डमें दो सरसों डालना चाहिए। यह जघन्य संख्येयका प्रमाण है। उस अनवस्थित' कुण्डको सरसोंसे भर देना चाहिए। फिर कोई देव उससे एक-एक सरसोंको क्रमशः एक-एक द्वीप समुद्रमें डालता जाय । जब वह कुण्ड खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें एक दाना डाला जाय। जहाँ अनवस्थितकुण्डका अन्तिम सरसों गिरा था उतना बड़ा अनवस्थित कुण्ड कल्पना किया जाय । उसे सरसोंसे भरकर फिर उससे आगेके द्वीपोंमें एक एक सरसों डालकर उसे खाली किया जाय। जब वह खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें दूसरा सरसों डाले। फिर जहाँ अन्तिम सरसों गिरा था उतना बड़ा अनवस्थित कुण्ड कल्पित करके उसे सरसोंसे भरकर उससे आगेके द्वीपसमुद्रोंमें एक एक सरसों डालकर खाली करना चाहिए। तब शलाका कुण्डमें एक सरसों डाले। इस तरह अनवस्थितकुण्डको तब तक बढ़ाता जाय जब तक शलाका कुण्ड सरसोंसे न भर जाय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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